भाषा की प्रकृति, प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ | Bhasha ki Prakriti, Pravrittiyan aur Visheshtaen
भाषा
की प्रकृति, प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ
Bhasha ki Prakriti, Pravrittiyan aur Visheshtaen
अपने व्यापक
रूप में भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते हैं तथा अपने विचारों को व्यक्त
करते हैं ।
‘भाषा’ शब्द संस्कृत की ‘भाष’ धातु से बना है जिसका अर्थ है- ‘बोलना’ या ‘कहना’
डॉ. भोलानाथ
तिवारी के अनुसार भाषा की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी जा सकती है – भाषा, उच्चारण-अवयवों से उच्चरित, यादृच्छिक (Arbitrary) ध्वनि-प्रतीकों की वह
व्यवस्था है, जिसके द्वारा समाज-विशेष के लोग आपस में
विचारों का आदान-प्रदान करते हैं ।
भाषा की
प्रकृति के विविध रूप हैं। भाषा की प्रकृति, उसकी प्रवृत्तियों एवं
विशेषताओं को निम्नांकित शीर्षकों में देखा जा सकता है--
1. भाषा सामाजिक वस्तु है— भाषा सामाजिक संपत्ति होती है। भाषा की उत्पत्ति, विकास, अर्जन,
प्रयोग, व्यवहार इत्यादि समाज में ही होता है।
समाज से परे किसी भाषा की कल्पना अथवा उसका अस्तित्व असंभव है। मनुष्य समाज से ही
भाषा सीखता और उसका प्रयोग करता है। वस्तुतः, भाषा सामाजिक
व्यवहार हैं और मनुष्य को भाषा समाज की ओर से एक महत्त्वपूर्ण देन है।
2. भाषा अर्जित व्यवहार है— भाषा मनुष्य को प्रकृतिप्रदत्त अथवा जन्मजात
उपहार के रूप में प्राप्त नहीं होती बल्कि वह अर्जित की हुई निधि होती है। मनुष्य
का शिशु के रूप में जब इस धरती पर आगमन होता है तो वह शरीरांगों आँख, नाक, कान,
पैर, हाथ की भाँति भाषा को लेकर नहीं आता
बल्कि भाषा उसे सीखनी पड़ती है। यही भाषा की अर्जनीयता है।
3. भाषा अनुकरण से सीखी जाती है- अनुकरणीयता भाषा की एक अन्य मुख्य प्रकृति है।
भाषा मनुष्य अनुकरण से सीखता है। माँ-बाप, भाई-बहन, शिक्षक,
द्विभाषिया इत्यादि मनुष्य को भाषा सिखाने में नियामक होते हैं।
भाषा अनुकृत व्यवहार है।
4. भाषा परिवर्तनशील होती है— भाषा की प्रकृति स्थायी नहीं होती अपितु उसकी
प्रकृति परिवर्तनशील होती है। सांसारिक वस्तुओं के समान भाषा भी विकासशील अथवा
परिवर्तनशील होती है किन्तु भाषा में परिवर्तनशीलता की गति बहुत धीरे-धीरे और इस
प्रकार होती है कि वह लक्षित अथवा प्रकट नहीं होती । व्यक्तिगत उच्चारण में
परिवर्तन कालांतर में पूरे समाज में दिखलाई देने लगता है। शर्करा > शक्कर, चतुर्वेदी >चौबे, अग्नि > आग, शाक > साग, मेघ > मेह इत्यादि इसके प्रमुख उदाहरण
हैं।
5. भाषा कठिनता से सरलता की ओर उन्मुख होती है— भाषा कठिनता से सरलता तथा स्थूलता से सूक्ष्मता
की ओर उन्मुख होती है। भाषा की यह एक मुख्य प्रवृत्ति है। मनुष्य की सहज प्रवृत्ति
बोलने में सरलता एवं सहजता की होती है इसलिए भाषा भी कठिनता से सरलता की ओर तथा स्थूलता
से सूक्ष्मता की ओर अग्रसर हो जाती है। मुख्योपाध्याय से मुखर्जी, बन्द्योपाध्याय से बनर्जी,
अट्टालिका से अटारी, लौहकार से लोहार इत्यादि
शब्दों के उच्चारण जटिल रूपों के सरल रूपों में अभिव्यक्ति के उदाहरण हैं।
6. भाषा
संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर प्रवाहमान होती है- भाषा संयोगावस्था (मिली हुई) से वियोगावस्था
(अलग-अलग होना) की ओर अग्रसर होती है। भाषाएँ पहले संयोगावस्था में थीं, जिनमें प्रकृति एवं प्रत्यय का
समन्वय-सिद्धांत रखा जाता था किन्तु कालांतर में भाषाएँ वियोगावस्था की ओर अग्रसर
हो जाती हैं। जैसे— ‘रामेण’ एक पद के
स्थान पर ‘राम ने’ दो पद का होना।
7. भाषा
अप्रौढ़ता से प्रौढ़ता की ओर उन्मुख होती है— भाषा स्वाभाविक रूप से अप्रौढ़ता से प्रौढ़ता की ओर उन्मुख होती है।
भाषा का कोई अंतिम स्वरूप नहीं होता है। वह परिवर्तनशील, परिमार्जित, परिनिष्ठित और अप्रौढ़ता से प्रौढ़ता की ओर विकासशील होती रहती है।
पुरानी हिंदी की तुलना में आज की खड़ी बोली हिंदी
ने कितनी प्रौढ़ता प्राप्त कर ली है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। ‘परीक्षागुरु’, ‘भाग्यवती’, ‘देवरानी-जेठानी’ की कहानी
जैसे प्रारंभिक उपन्यासों की भाषा कितनी अप्रौढ़ थी किन्तु ‘मुझे चाँद चाहिये’, ‘चाक’, ‘अल्मा कबूतरी’ इत्यादि
समकालीन उपन्यासों की भाषा देखें तो स्पष्ट होगा कि भाषा अप्रौढ़ता से प्रौढ़ता की
ओर विकासशील होती है।
8. भाषा
अनिवार्य एवं सर्वव्यापक होती है— मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य और समाज का
अटूट, अभिन्न एवं अविभाज्य संबंध होता है। मनुष्य एवं समाज के लिए भाषा नितांत
अनिवार्य है। जहाँ व्यक्ति है, वहाँ भाषा है और जहाँ समाज है,
वहाँ भी कोई-न-कोई भाषा अवश्य है। इस प्रकार, भाषा
का स्वरूप अनिवार्यता एवं सर्वव्यापकता का होता है।
9. भाषा की
संरचना पृथक्-पृथक् होती है— प्रत्येक भाषा की संरचना पृथक्- पृथक् एवं
स्वतंत्र होती है। ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य,
अर्थ, व्याकरण इत्यादि की दृष्टि से भाषाओं
में विभेदक रेखा होती है। उदाहरण के लिए हिंदी में दो लिंग हैं जबकि संस्कृत और
गुजराती में तीन लिंग हैं। इसी प्रकार, हिंदी में दो वचन हैं—एकवचन और बहुवचन, जबकि संस्कृत में तीन वचन हैं एक वचन, द्विवचन और
बहुवचन। इस प्रकार प्रत्येक भाषा का ढाँचा दूसरी भाषा से भिन्नता लिये होता है।
10. भाषा का प्रवाह अविच्छिन्न एवं नैसर्गिक होता है— मानव सृष्टि
की भाँति भाषा का प्रवाह अविच्छिन्न एवं नैसर्गिक होता है। भाषा का प्रवाह कभी
रुकता नहीं है और न बाधित होता है बल्कि वह नदी की धारा के समान सतत्, निरंतर, अविच्छिन्न
एवं नैसर्गिक रूप में प्रवाहित होता रहता है। वस्तुतः भाषा बहता नीर है।
11.भाषा भावोद्गार का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है- मनुष्य की इच्छा, भावना, कार्य,
विचार अर्थात् मनुष्य के संपूर्ण क्रियाकलाप भाषा के माध्यम से ही
अभिव्यक्त होते हैं। इस दृष्टि से भाषा भाव सम्प्रेषण का सर्वश्रेष्ठ साधन है।
भाषा मनुष्य के भावोद्गार का ऐसा सशक्त माध्यम है, जिसके
बिना मानव-जीवन अपूर्ण एवं पंगु है।
12. भाषा की एक भौगोलिक सीमा होती है— प्रत्येक भाषा की एक भौगोलिक सीमा होती है। एक प्रसिद्ध
कहावत है - चार
कोस पर पानी बदले,
आठ कोस पर बानी। स्थान-भेद से भाषा में विभेद हो जाता है। हिंदी, गुजराती, मराठी
बंग्ला, अंग्रेजी, रूसी, चीनी इत्यादि सभी भाषाओं की अपनी- अपनी भौगोलिक सीमाएँ हैं।
13. भाषा की ऐतिहासिक सीमा होती है— प्रत्येक भाषा की भौगोलिक सीमा के साथ-साथ एक
ऐतिहासिक सीमा भी होती है। ऐतिहासिक सीमा से अभिप्राय यह है कि प्रत्येक भाषा का
अस्तित्व इतिहास के किसी विशेष कालखंड से लेकर किसी विशेष समय तक ही रहता है। जैसे
प्राकृत भाषा का समय पहली ईसवी से 500 ई. तक माना जाता है। प्राकृत
भाषा से पूर्व पालिभाषा का अस्तित्व था, तत्पश्चात् अपभ्रंश
भाषा का बोलबाला रहा फिर अवहट्ट भाषा का आगमन हुआ।
निष्कर्ष
अतः निष्कर्षत: भाषा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नानुसार हैं, जिनसे भाषा की प्रकृति स्पष्ट
होती है:
1. भाषा का परिवर्तन पहले वाचिक रूप में होता है।
2. भाषा अनियमित से नियमित होती है।
3. भाषा मानव जीवन से पोषित और संवर्द्धित होती है।
4. भाषा
स्वत: पूर्ण एवं स्वाभाविक आत्मोद्गार की प्रक्रिया है।
5. भाषा मुख्यतः उच्चरित साधन एवं गौणतः लिखित साधन है।
6. भाषा पैतृक एवं जन्मसिद्ध नहीं है।
7. भाषा में
सामाजिक दृष्टि से स्तर भेद होता है।
इस प्रकार, भाषा की उक्त मुख्य प्रवृत्तियाँ
एवं विशेषताएँ हैं, जिनसे भाषा की प्रकृति स्पष्ट होती है।
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