विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य-भाषा सिद्धान्त | William Wordsworth ka Kavyabhasha Siddhant

 
विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य-भाषा सिद्धान्त
William Wordsworth ka Kavyabhasha Siddhant



विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य-भाषा सिद्धान्त | William Wordsworth ka Kavyabhasha Siddhant

 

         प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ (1770-1850 ई.) एक कवि के रूप में सुविख्यात हैं। आधुनिक काल के छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त की भांति वईसवर्थ ने भी प्रकृति निरीक्षण से कविता की ओर अपने झुकाव को व्यक्त किया है। बीस वर्ष की अवस्था में वर्ड्सवर्थ ने पैदल ही फ्रान्स, इटली और आल्पस पर्वत श्रृंखला की प्राकृतिक सुषमा का अवलोकन किया और इस सौन्दर्य को अपनी काव्यवस्तु बनाया। विद्वानों का एक वर्ग यह भी मानता है कि फ्रान्स की राज्य क्रान्ति ने भी वर्ड्सवर्थ की आलोचना को प्रभावित किया।

 

         सन् 1795 ई. में वर्ड्सवर्थ एक अन्य कवि कॉलरिजके सम्पर्क में आए और दोनों ने मिलकर ऐसी नवीन रचनाएं प्रस्तुत की जो तत्कालीन युग की मांग थीं। इन दोनों की रचनाओं का संकलन लिरिकल बैलड्सनामक संग्रह में 1798 ई. में प्रकाशित हुआ। इस संकलन की भूमिका एडवरटिजमेन्टनाम से वर्ड्सवर्थ ने लिखी, जिससे उस समय कॉलरिज पूर्ण रूप से सहमत थे। इस भूमिका में इस संग्रह में संकलित कविताओं की विषय-वस्तु और काव्य भाषा पर विस्तार से प्रकाश डाला गया था जिसकी तीखी आलोचना नव-अभिजात्यवादी आलोचकों ने की।


            सन् 1800 ई. में ‘लिरिकल बैलड्सका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ जिसमें वर्ड्सवर्थ ने एक लम्बी भूमिका प्रिफेस टु लिरिकल बैलड्सनाम से जोड़ी जिसमें उन्होंने अपने आलोचकों द्वारा उठाए गए प्रश्नों, शंकाओं का सटीक उत्तर दिया। अगले संस्करण में पुनः इस भूमिका में कुछ और जोड़ा गया। इस प्रकार सन् 1815 ई. तक उक्त संकलन के चार संस्करण प्रकाशित हुए।

 

     यद्यपि वर्ड्सवर्थ द्वारा काव्यवस्तु एवं काव्यभाषा पर व्यक्त किए गए विचारों से कॉलरिजप्रारम्भ में पूर्ण रूप से सहमत थे, किन्तु कालान्तर में उन्होंने 1817 ई. में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक बायोग्राफिया लिटरेरियामें वईसवर्थ के विचारों का खण्डन किया।

      भले ही कॉलरिज एवं अन्य आलोचकों ने वर्ड्सवर्थ के काव्यभाषा सम्बन्धी विचारों से असहमति व्यक्त की हो, किन्तु अंग्रेजी समीक्षा में वर्ड्सवर्थ के लिरिकल बैलड्सकी भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः इस भूमिका ने काव्य की विषय-वस्तु एवं काव्यभाषा पर जो विचार व्यक्त किए वे सर्वथा नवीन एवं मौलिक थे तथा इन विचारों ने परम्परागत आधार को धक्का पहुंचाया। उन्होंने कवि, कविता, काव्य की विषय-वस्तु, काव्यप्रयोजन, काव्यभाषा पर विस्तृत विवेचन करते हुए नवीन विचार प्रस्तुत किए। 

इनमें से काव्यभाषा पर व्यक्त उनके विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इन विचारों को हम निम्न बिन्दुओं में भली प्रकार समझ सकते हैं :
 

1. वर्ड्सवर्थ ने परम्परागत काव्यभाषा एवं काव्यशैली का तीव्र विरोध किया। आधुनिक काल में जिस प्रकार टी.एस. इलियट एवं एजरा पाउण्डने काव्य में बोलचाल की भाषा का समर्थन किया, वैसे ही वर्ड्सवर्थ ने कविता के लिए स्वाभाविक एवं प्रकृत (सहज, साधारण) भाषा का जोरदार समर्थन किया।

 

2. वर्ड्सवर्थ कृत्रिमता के स्थान पर सरलता को शैलीगत सौन्दर्य मानते हैं। उन्होंने कृत्रिम भाषा को त्यागकर सरल भाषा पर बल दिया। उनसे पूर्व कवियों ने भाषा को अस्वाभाविक, बोझिल, आडम्बरपूर्ण एवं कृत्रिम बना दिया था जिसका पुरजोर विरोध वर्ड्सवर्थ ने किया।

 

3. वर्ड्सवर्थ ने काव्य की विषय-वस्तु के लिए जिस प्रकार ग्रामीण जीवन का समर्थन किया, उसी प्रकार ग्रामीण जीवन की दैनिक बोलचाल की भाषा का काव्य में प्रयोग करने का समर्थन किया। उनकी मान्यता है कि ग्रामीणों की अभिव्यक्ति सरल, अकृत्रिम एवं स्वच्छन्द होती है। उनकी वाणी में सच्चाई तथा भावों में सरलता रहती है, अतः इसी भाषा को काव्य में प्रयुक्त करना चाहिए।

 

4. वर्ड्सवर्थ ने गद्य और पद्य में समान भाषा के प्रयोग की वकालत की। उनकी यह मान्यता भाषा सम्बन्धी अतिवादिता (अमर्यादित, वाचालता) का परिचय देती है, क्योंकि गद्य-पद्य का अन्तर केवल छन्द के कारण ही नहीं होता अपितु वाक्य-विन्यास, पद-चयन, आलंकारिकता आदि के कारण भी होता है।

 

5. वईसवर्थ कविता को “Spontaneous overflow of powerful feelings” अर्थात् “प्रबल भावावेगों का स्वच्छन्द प्रवाह” मानते थे। प्रबल भावों की भाषा स्वतः ही भव्य, सजीव एवं चित्रात्मक होगी।

 

6. वईसवर्थ की धारणा थी कि कृत्रिम भाषा निम्न श्रेणी के कवियों की देन है। जब कवि वास्तविक घटनाओं से उद्बुद्ध (जागृत) भावों को काव्य में निबद्ध (सँजोता, गुँथना) करता है तब भावों की प्रबलता के कारण भाषा सहज रूप में प्रभावी और अलंकृत होती है।

 

7. जब कोई कवि यश की कामना से काव्य रचना करता है तब भाषा में आडम्बर, कृत्रिमता, समास, अलंकार, जटिलता, उक्ति वैचित्र्य (अभिव्यक्ति का चमत्कार) आदि का समावेश होता है। यह भाषा सहज नहीं होती अतः काव्य के लिए इसे वईसवर्थ अनुपयुक्त बताते हैं।

 

8. वईसवर्थ यद्यपि छन्द को कविता के लिए अनिवार्य नहीं मानते तथापि छन्द की महत्ता एवं शक्ति को स्वीकार करते हैं। उनके विचार से छन्दयुक्त होने पर कविता सम, सन्तुलित एवं आनन्दप्रद बन जाती है। छन्द विषय के उपयुक्त होना चाहिए तभी प्रभावी कविता बनती है।

 

वर्ड्सवर्थ के भाषा सम्बन्धी विचारों की आलोचना :


     कॉलरिज ने अपने ग्रन्थ बायोग्राफिया लिटरेरियामें वईसवर्थ की विचारधारा की आलोचना करते हुए जो तर्क दिए वे इस प्रकार हैं:

 

1. कॉलरिज के अनुसार ग्रामीण भाषा की शब्दावली अपर्याप्त और कामचलाऊ होती है उसमें काव्य की गहन, सूक्ष्म एवं विविध अनुभूतियों को व्यक्त कर सकने की क्षमता नहीं होती।

       इस सम्बन्ध में यह कहना उपयुक्त है कि वईसवर्थ ग्रामीण भाषा के प्रति दुराग्राही नहीं थे। उनका कथन था कि कवि को यथासम्भव ग्रामीण भाषा का प्रयोग करना चाहिए।

 

2. वर्ड्सवर्थ काव्य में उस भाषा के प्रयोग पर बल देते हैं जो मनुष्यों की वास्तविक भाषा है, अर्थात् वे कृत्रिमता से बचने की बात कहते हैं, किन्तु कॉलरिज का मत है कि प्रत्येक मनुष्य की भाषा उसके ज्ञान, क्रिया, सम्वेदना, शिक्षा के स्तर आदि के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। अतः काव्य भाषा में स्वाभाविक भाषा का प्रयोग न होकर उस भाषा का प्रयोग होता है जो संस्कार रूप में कवि के मन पर अपना प्रभाव डाले रहती है।

 

3. वईसवर्थ का यह भी कहना था कि ग्रामीण भाषा के दोषों को दूर करके उसमें से उन शब्दों को निकाल देना चाहिए जो अरुचि और जुगुप्सा (घृणा) उत्पन्न करने वाले हों। इस सम्बन्ध में कॉलरिज का कथन है कि जब ग्रामीण भाषा को दोषों से मुक्त करके परिष्कृत कर लिया गया हो, तो वह ग्रामीण भाषा कहाँ  रहती है।

 

     इस सम्बन्ध में यही कहना उचित है कि वईसवर्थ ने ग्रामीण भाषा का समर्थन करते हुए कवियों का रुझान ग्रामीण भाषा की ओर करने का प्रयास किया है।

 

4. कॉलरिज यह भी मानते हैं कि भावों के प्रबल आवेग की दशा में या तीव्र अनुभूति की दशा में वे ही शब्द कवि को सूझते हैं जो पहले से मन में विद्यमान हों और असाधारण उत्तेजना से वे उत्पन्न हो जाते हैं।

     वईसवर्थ का कहना है कि काव्य में प्रयुक्त शब्द अलौकिक नहीं होते, वे बोलचाल की भाषा से ही गृहीत होते हैं, लेकिन इस अवस्था में प्रयुक्त होने पर अधिक भाव-व्यंजक (स्पष्ट भाव प्रकट करने वाला) हो जाते हैं।

 

5. कॉलरिज ने गद्य और पद्य की भाषा की एकरूपता का भी विरोध किया उनके अनुसार – “कोई शब्द या शब्द क्रम केवल गद्य के लिए होता है, तो कोई पद्य के लिए।” इसलिए गद्य और पद्य की भाषा में अभेद स्वीकार्य नहीं है।


निष्कर्ष

 

     इस प्रकार विलियम वर्ड्सवर्थ ने काव्यभाषा के संबंध में तीन प्रमुख मान्यताएँ प्रतिपादित की :

1. कविता में बोलचाल की भाषा का प्रयोग होना चाहिए। उन्होंने कवियों को यह सलाह दी कि उन्हें यथासंभव जनसामान्य की भाषा को अपना लेना चाहिए।

 

2. गद्य और काव्य की भाषा में कोई तात्विक अंतर नहीं होता ।

 

3. प्राचीन कवियों के उद्गारों में सहजता थी । इसी कारण भाषा सरल थी एवं उसमें आडंबर एवं बनावटीपन नहीं था ।  

     वर्ड्सवर्थ के अनुसार कवि के हृदय में यदि भाव का उन्मेष (भाव प्रकट होना) है और विषय का चयन ठीक हुआ है तो भाषा स्वयं ही उसके अनुरूप आकार ग्रहण कर लेगी। उनकी यह धारणा थी कि शब्द अपने आप में काव्यात्मक या अकाव्यात्मक नहीं होते, भाषा प्रयोग के आधार पर वे अपना स्वरूप अर्जित करते हैं ।

     अतः उक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वईसवर्थ के काव्यभाषा सम्बन्धी विचार निश्चित ही मौलिक एवं नवीन हैं। वस्तुतः वह काव्य में आडम्बरपूर्ण भाषा के विरोधी थे और सरल, सहज, ग्रामीण भाषा के पक्षधर थे  जो अकृत्रिम एवं प्रकृत (सहज, साधारण) होती है। वर्ड्सवर्थ ने काव्य में कल्पना शक्तिपर विशेष बल दिया और काव्य में भाव-तत्व को प्रतिष्ठित किया। यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि एक महाकवि की अन्तर्दृष्टि (मन की बात समझने की शक्ति, ज्ञानचक्षु ,प्रज्ञा) वर्ड्सवर्थ के विचारों में विद्यमान थी, भले ही उनके विचारों का पर्याप्त विरोध कॉलरिज एवं अन्य आलोचकों ने किया हो।

 

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