प्रयोजनमूलक हिंदी : प्रयुक्तियां और व्यवहार क्षेत्र | Prayojanmulak Hindi : Prayuktiyan Aur Vyavahar Kshetra

प्रयोजनमूलक हिंदी : प्रयुक्तियां और व्यवहार क्षेत्र 

Prayojanmulak Hindi:Prayuktiyan Aur Vyavahar Kshetra       


प्रयोजनमूलक हिंदी : प्रयुक्तियां और व्यवहार क्षेत्र  | Prayojanmulak Hindi : Prayuktiyan Aur Vyavahar Kshe
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प्रयोजनमूलक भाषा से तात्पर्य है किसी प्रयोजन विशेष के लिए इस्तेमाल होने वाली भाषा। यों तो भाषा का उद्देशय ही भावों और विचारों की अभिव्यक्ति होता है चाहे वह अभिव्यक्ति मौखिक हो अथवा लिखित लेकिन इस सहज प्रयोजन विशेष के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा प्रयोजनों का माध्यम भी बनती है और ऐसे प्रयोजन विशेष के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा प्रयोजनमूलक भाषा कहलाती है।



     

    अब प्रश्न यह है कि वे प्रयोजन कौन से हैंइसका उत्तर है जीवन के विभिन्न कार्यक्षेत्रों से संबंधित प्रयोजन। दैनंदिन जीवन में हमारी विभिन्न भूमिकाएँ होती हैं और ये भूमिकाएँ हमारे भाषा व्यवहार को भी नियमित करती हैं। उदाहरण के लिए परिवार के सदस्यों अथवा मित्रों के बीच हम जिस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं वैसी भाषा का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक सहयोगियों के साथ नहीं करते। यह अंतर कई तरह का होता है। सर्वप्रथम तो यह भाषिक औपचारिकता का अंतर होता है यानी परिवार के सदस्यों अथवा मित्रों से बातचीत अथवा पत्र-व्यवहार में हम कई तरह की भाषिक छूट ले लेते हैंउनके साथ हमारा भाषा-व्यवहार काफी अनौपचारिक होता है। लेकिन अपने कार्यालय अथवा व्यवसाय के सहयोगियों के साथ हमारा भाषा व्यवहार औपचारिक होता है। उनके साथ हम ‘तू’, ‘तुम’ जैसे संबोधन का इस्तेमाल नहीं करतेअनावश्यक हँसी-मजाक नहीं करते।


         इसके अलावा एक और भी अंतर है । अपने रोजगार संबंधी कार्यों के दौरान हम जिस शब्दावली अथवा वाक्यांशों का व्यवहार करते हैं उसका व्यवहार रोजमर्रा की जिंदगी के अन्य कार्यों में नहीं करते। इतना ही नहीं हम कहीं आवेदन फार्म भरते हैंबैंक में अपने खाते का संचालन करते हैंअस्पताल में दवा लेने जाते हैं तो वहाँ जो फार्म हमें भरने होते हैं या जो पर्चियां हमें  डॉक्टर द्वारा या अन्य संबद्ध व्यक्तियों द्वारा मिलती है उनकी भाषा में भी सामान्य व्यवहार की भाषा से भिन्नता दिखाई देती है। यह भिन्नता औपचारिकता के अलावा शब्दावली और वाक्यांशों की भी होती है। 

            किसी एक ही कार्यालय या संस्था विशेष से जुड़े सभी लोग उसी तरह की शब्दावली का प्रयोग करते हैं जो उनके कार्य विशेष से जुड़ी होती है और उनके अपने-अपने कार्यक्षेत्र के लोगों से संपर्क की भाषा का अनिवार्य अंग होती है। अपने कार्यालय या संस्था विशेष से बाहर भी अपने व्यवसाय से संबंधित लोगों से संपर्क में वे उसी भाषा का व्यवहार करते हैं। इस तरह यह उनके कार्य क्षेत्र के प्रयोजनों की भाषा कहलाती है। इसे व्यावहारिक भाषा (Functional Language) भी कहा जाता है।  अतः हम चाहे प्रयोजनमूलक हिंदी’ कहें अथवा व्यावहारिक हिंदी’ दोनों का मायने एक ही होता है।


             प्रयोजनमूलक भाषा का इस्तेमाल किन्हीं प्रयोजनों के लिए किया जाता है। इस दृष्टि से विभिन्न प्रयोजनों के लिए इस्तेमाल होने वाली भाषा अलग-अलग होती है।  व्यापार के प्रयोजनों की भाषाविज्ञान के प्रयोजनों से भिन्न होती है। यह भिन्नता जिस रूप में प्रकट और मान्य होती है उसका आधार होती है प्रयुक्ति। वास्तव में प्रयुक्ति ही भाषा को प्रयोजनमूलक स्वरूप प्रदान करती है। विभिन्न प्रयोजनों के अनुरूप भाषा में होने वाली विभिन्न प्रयुक्तियां भाषा के विभिन्न सामाजिक पक्षों को उद्घाटित करती है। इस तरह प्रयुक्ति की संकल्पना प्रयोजनमूलक भाषा की विभिन्न छवियों को समझने का आधार बन सकती है।

    प्रयुक्ति क्या है?


          ‘प्रयुक्ति’ शब्द ‘प्रयुक्त’ में ‘’ प्रत्यय लगाकर बना है। ‘प्रयुक्त’ का अर्थ है ‘प्रयोग में लाया हुआ। भाषा का जो रूप किसी विषय अथवा कार्य क्षेत्र में बार-बार या लगातार प्रयुक्त होता हैवह उस कार्य क्षेत्र की भाषिक विशिष्टता बन जाता है। इस भाषिक विशिष्टता को उस विषय अथवा कार्य क्षेत्र विशेष की प्रयुक्ति कहा जाता है।

          ‘प्रयुक्ति’ वस्तुतः अंग्रेजी शब्द ‘Register’ का हिंदी पर्याय है।  सामाजिक जीवन व्यवहार में हर क्षेत्र की भाषा की अपनी विशिष्टताओं को देखते हुए भाषाविदों ने ‘रजिस्टर’ यानी ‘प्रयुक्ति’ की संकल्पना निर्धारित की है। सामाजिक स्तर भेद के कारण भाषा में जो अंतर आता है वही प्रयुक्ति का रूप निर्धारण करता हैजैसे व्यापारियों की भाषा में जो अंतर आता है वही प्रयुक्ति का रूप निर्धारण करता हैजैसे व्यापारियों की भाषा और कचहरी की भाषा का अपना- अपना मुहावरा और शब्दावली होती है।

         विषयसंदर्भ और भूमिका संबंधी विभिन्न तरह के प्रयोगों के कारण किसी भाषा में कई भेद मिलने शुरू हो जाते हैं ।  इन अनेक भेदों को ही भाषा चिंतक ‘प्रयुक्ति’ नाम देते हैं । डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया के अनुसार विषय और प्रयोग के अनुकूल भाषा-रूपों को ही ‘प्रयुक्ति (Register)’ की संज्ञा दी गई है । कामकाजी भाषा के जितने विविध क्षेत्र होंगे, ‘प्रयुक्ति’ के भी उतने ही विविध रूप होंगे। विषयगत तथा प्रयोगगत विविधता ही ‘प्रयुक्ति’ कहलाती है । ‘प्रयुक्ति’ का मुख्य आधार किसी कार्य क्षेत्र में प्रयुक्त की जाने वाली शब्दावली है ।    

         इस तरह विविध स्थितियों और विषय क्षेत्रों में भाषा व्यवहार की एक निश्चित पद्धति बन जाती हैजो उस क्षेत्र विशेष से जुड़े समाज द्वारा सामान्य रूप में स्वीकृत होती है। प्रयोजनमूलक भाषा के विविध रूप इन प्रयुक्तियों द्वारा निर्धारित होते हैं।

         सामाजिक स्तरपेशाआय आदि के भेद के कारण भाषा का अंतर यद्यपि काफी छोटे या सीमित स्तर पर भी देखा जाता है जैसे बच्चों की भाषा या स्त्रियों की भाषा या पुरुषों की भाषानौकरीपेशा लोगों की भाषाश्रमिकों की भाषाअध्यापकों की भाषा आदि। लेकिन यह भेद प्रयुक्ति का आधार नहीं हो सकताक्योंकि प्रयुक्ति का संबंध एक स्तर पर व्यवसाय या आजीविका विशेष से भी होता है। किसी कार्य क्षेत्र विशेष से संबंधित सभी लोगों की भाषा में पायी जाने वाली समानता के आधार पर प्रयुक्ति का निर्धारण होता है। 

        उदाहरण के लिए विधिक प्रक्रिया से जुड़े सभी लोग न्यायाधीशवकीलपेशकारमुवक्किलविधिवेत्ताविधि शिक्षकविधि छात्र आदि विभिन्न स्तरों की विधि की भाषा का प्रयोग करते हैं। विधि की विशिष्ट शब्दावलीवाक्यांशवाक्य प्रयोग के ढंग आदि को मिलाकर भाषा विधिक प्रयुक्ति निर्मित होती है।


    प्रयुक्ति का आधार


         प्रयोग की विशेषताओं के आधार पर किसी भाषा के अंतर्गत ‘प्रयुक्तियां’ अथवा ‘रजिस्टर’ बन जाते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या एक प्रयुक्ति दूसरी से सर्वथा भिन्न होती है तथा इन प्रयुक्तियों को किस आधार पर निश्चित अथवा निर्धारित किया जाता है।

          प्रयुक्ति चूँकि भाषा के भीतर ही विशिष्ट भाषा रूप होता हैअत उस भाषा की व्यापक विशेषताएँ तो उसमें होती ही हैं। यानी विभिन्न प्रयुक्तियों की शब्दावली मिलकर उस भाषा की शब्दावली बनती है तथा भाषा की संरचना और उसका सामान्य मुहावरा प्रयुक्तियों में मौजूद रहता है। इसलिए एक प्रयुक्ति का दूसरी प्रयुक्ति में अंत:प्रवेश बराबर होता रहता है।

         उदाहरण के लिए हमें साहित्यिक लेखन में विज्ञानदर्शन अथवा गणित की शब्दावली का समावेश आमतौर पर देखने को मिलता है लेकिन इसके बावजूद शब्दावली प्रयुक्ति का महत्वपूर्ण आधार होती है। प्रयुक्ति के निर्धारण में वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और यह निर्वाह दो प्रकार से होता है :

    1) क्षेत्र विशेष की विशिष्ट शब्दावली होती हैजैसे - ऑक्सीजनहाइड्रोजन आदि विज्ञान के शब्द हैं।

    2) शब्दों के अर्थ विभिन्न क्षेत्र में भिन्न-भिन्न होते हैं जैसे ‘पद’ शब्द कविता में छंद विशेष के लिए प्रयुक्त होता हैआम बोलचाल में इसका अर्थ पैर से हैव्याकरण में इसका अर्थ अभिव्यक्ति से संबंधित है और प्रशासनिक क्षेत्र में इसका अर्थ ओहदे से है।

     

    प्रयुक्ति के निर्धारक तत्व 



         शब्दावली के अतिरिक्त और भी कई महत्वपूर्ण आधार हैं जिनसे प्रयुक्ति को पहचाना या निर्धारित किया जा सकता हैये निम्नानुसार हैं :  


     

    1. विषय क्षेत्र:




         भाषा का प्रयोग जिस विषय क्षेत्र में किया जाए वह विषय या संदर्भ विशेष भाषा के स्वरूप को निर्धारित करता है। उस क्षेत्र विशेष की शब्दावली और वाक्य संरचना अपने ढंग की होती हैजो अपने क्षेत्र विशेष में काफी सार्थक और परिपाटीबद्ध होती हैजैसे कचहरी (न्यायालय) की भाषा को ही लें। कचहरियों में इस्तेमाल होने वाली हिंदी में अधिकतर उर्दू शब्दों की बहुलता होती है और वाक्य विन्यास भी अपने ढंग का होता हैभाषा औपचारिक होने के साथ ही अर्थ की एक निश्चितता होती है। 

        उदाहरण के लिए ‘बनाम’ शब्द सुनते ही हमें दो ऐसे पक्षों का ध्यान आ जाएगा जिनके बीच कोई मुकदमा चल रहा हो लेकिन ‘बनाम’ के स्थान पर कोई अन्य शब्द नहीं रखा जा सकेगा। यानी प्रेमसिंह बनाम केसरी सिंह शब्दों से विवादाधीन मामले की जो ध्वनि निकली हैवह रामसिंह और केसरी सिंह के बीच कहने से नहीं निकलेगी।

         इसी भांति न्यायालय में जब वादी या प्रतिवादी पक्ष को प्रस्तुत होने के लिए आदेश दिया जाता है तो कहा जाता है: .................. हाजिर हों लेकिन कोई सार्वजनिक सभा चल रही हो तब मंच पर किसी व्यक्ति को बुलाया जाएगा तो ......... हाजिर हों न कहकर कहा जाएगा.......... मंच पर आएँ या आने का कष्ट करें


    2. संप्रेषण का तरीका:



         संप्रेषण का तरीका भी प्रयुक्ति का स्वरूप निर्धारित करने का महत्वपूर्ण घटक होता है। मौखिक और लिखित संप्रेषण के अनुसार हमारी शब्दावलीलहज़ेवाक्य-विन्यास आदि में बड़ा परिवर्तन आता है। लिखित रूप में औपचारिकता और सतर्कतादोनों ही बढ़ जाती है।


    3. वक्ता और श्रोता अथवा लेखक और पाठक की स्थिति:



         संप्रेषण लिखित हो अथवा मौखिकइस बात का बहुत असर पडता है कि कौन किससे किस समय बात कर रहा हैजैसे आयुर्विज्ञान संस्थान का एक डॉक्टर मरीज की नाजुक हालत और उसके उपचार के संबंध में अपने सहयोगियों से राय-मशविरा कर रहा हो तब और अपने अनुसंधानपरक लेख को विद्वान मंडली में पढ़ रहा हो तब उसकी भाषा के वाक्य विन्यासलहजे आदि में काफी अंतर होता है। वही डॉक्टर जब उस बात को आयुर्विज्ञान संस्थान के प्रथम वर्ष या द्वितीय वर्ष के छात्रों को समझा रहा हो तो फिर एक खास तरह का अंतर दिखाई देता है।


    4. भाषा प्रयोग की औपचारिक तथा अनौपचारिक स्थिति:



         ऊपर जिस डॉक्टर का उदाहरण दिया गया हैवही जब अपने डॉक्टर मित्रों से चाय पार्टी में बात कर रहा हो तब उसका भाषा व्यवहार ऑपरेशन की मेज पर उन्हीं डॉक्टर मित्रों के भाषा व्यवहार से भिन्न होगा। कहने का आशय यह है कि पहली स्थिति में वह अनौपचारिक भाषा का इस्तेमाल करेगा जबकि दूसरी स्थिति में वह पूरी तरह औपचारिक और सचेत होगा। दूसरी स्थिति में उसकी भाषा चिकित्सा विज्ञान के भीतर आएगीजबकि पहली स्थिति में ऐसा होना जरूरी नहीं है।

         उपर्युक्त आधारों को हम प्रयुक्ति के निर्धारण में इस्तेमाल करते हैं। ध्यान रखने की बात यह है कि जरूरी नहीं कि ये चारों आधार हर प्रयुक्ति के संबंध में बराबर मात्रा में लागू हो। ये आधार वस्तुत: मोटे तौर पर निर्धारित किए गए हैं और दो प्रयुक्तियों के बीच अंतर में कभी किसी एक या दो आधारों पर बल रहता है तो कभी अन्य आधारों पर।



    भाषा प्रयुक्तियों के प्रकार 



         सामान्य या समाज और जीवन के विविध कार्य क्षेत्रों के आधार पर किसी भाषा की निम्नलिखित प्रयुक्तियाँ हो सकती है:

     

    ·       सामान्य व्यवहार की प्रयुक्ति

    ·       साहित्यिक प्रयुक्ति

    ·       वाणिज्य व्यापार की प्रयुक्ति

    ·       बैंकिंग से संबंधित प्रयुक्ति

    ·       प्रशासनिक प्रयुक्ति

    ·       विधिक प्रयुक्ति

    ·        वैज्ञानिक प्रयुक्ति

    ·       मीडिया अथवा पत्रकारिता (संचार माध्यमों) से संबंधित प्रयुक्ति

    ·       विज्ञापनी प्रयुक्ति


    निष्कर्ष



         इन प्रयुक्तियों के अलावा भी और तरह की प्रयुक्तियाँ आवश्यकतानुसार विकसित हो सकती हैं। जैसे-जैसे नए-नए क्षेत्रों में भाषा का प्रयोग बढ़ता हैवैसे- वैसे भाषा में उन क्षेत्रों के अनुरूप प्रयुक्तियां विकसित होती हैं। इन प्रयुक्तियों से ही भाषा का प्रयोजनमूलक स्वरूप निर्धारित होता है। यदि किसी समाज का विकास किन्हीं अन्य क्षेत्रों में होता तो उससे संबंधित भाषा की नई प्रयुक्तियां भी स्वतः विकसित होती जाएगी।

     

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