रीति सम्प्रदाय | रीति सिद्धान्त | Riti Sampraday | Riti Siddhant | Acharya Vaman Ka Riti Sampraday | Bhartiya Kavyashastra

 

रीति सम्प्रदाय | रीति सिद्धान्त | Riti Sampraday | Riti Siddhant 

भारतीय काव्यशास्त्र | Bhartiya Kavyashastra


        रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य वामन (8वीं शती) माने जाते हैं। यद्यपि रीति शब्द का काव्य-शास्त्र में प्रयोग आचार्य वामन से पहले भी प्राप्त होता है पर उसका व्यवस्थित स्वरूप और विस्तृत व्याख्या सर्वप्रथम आचार्य वामन ने ही प्रस्तुत की।

        रीतिशब्द की व्युत्पत्ति रीङ्धातु में ऋन्प्रत्यय के योग से हुई है, जिसका अर्थ है-मार्ग, पंथ, गति, शैली आदि।


        आचार्य वामन ने अपने ग्रन्थ काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में रीतिकी परिभाषा देते हुए कहा है :  विशिष्ट पद रचना रीतिः”


        अर्थात् विशेष प्रकार की पद रचना को रीति कहते हैं। विशिष्टको स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं : विशेषो गुणात्मा’। 


        अर्थात् यह विशिष्टता गुणसे आती है, अर्थात् काव्य में गुणात्मक पद रचना को रीति कहते हैं। गुणात्मकता से उनका अभिप्राय ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि काव्य गुणों से है।


        उक्त विवेचन के आधार पर रीति की परिभाषा निम्न शब्दों में की जा सकती है “प्रसाद, ओज, माधुर्य आदि गुणों से युक्त पद रचना रीति है।” इसीलिए रीति सम्प्रदाय को गुण सम्प्रदाय भी कहा जाता है।


        आचार्य वामन ने गुणोंको विशेष महत्व दिया। उनके अनुसार गुणकाव्य के नित्य धर्म हैं, जिनकी अनुपस्थिति में काव्य का अस्तित्व असम्भव है। गुणों को काव्य का शोभाकारक धर्म मानते हुए वे लिखते हैं-  “काव्य शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः।”


        अर्थात् गुण काव्य के शोभाकारक धर्म हैं।


        अतः आचार्य वामन के अनुसार-शब्दगत और अर्थगत सौन्दर्य से सम्पन्न पदयोजना को रीति कहते हैं।


        अलंकार को वे काव्य का अनित्य धर्म मानते हैं, जो काव्य की शोभा को अतिशय करने वाला तत्व है।


        दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आचार्य वामन गुणोंकी सत्ता को काव्य में अनिवार्य मानते हैं, किन्तु अलंकारों को काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं मानते।


        आचार्य दण्डी अलंकार को काव्य का शोभाकारक धर्म मानते हैं । अतः यह कहना उचित होगा कि दण्डी जिसे अलंकार कहते हैं, आचार्य वामन उसी तत्व को गुण कहते हैं।


गुणों के भेद - आचार्य वामन के अनुसार गुण दो प्रकार के होते हैं-

1. शब्दगत, 2. अर्थगत।


        इनमें से प्रत्येक के अन्तर्गत दस-दस गुण हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-

1. ओज, 2. प्रसाद, 3. श्लेष, 4. समता, 5. समाधि, 6. माधुर्य, 7. सौकुमार्य,

8. उदारता, 9. अर्थव्यक्ति, 10. कान्ति ।


        इस प्रकार आचार्य वामन ने कुल बीस गुण माने हैं - दस शब्दगत और दस अर्थगत।


        आचार्य वामन के परवर्ती आचार्यों ने गुणों की इस संख्या को स्वीकार नहीं किया। आचार्य भोजराज ने 24 गुण बताए हैं जबकि आचार्य मम्मट ने गुणों की संख्या केवल तीन तक सीमित कर दी और इनके अन्तर्गत माधुर्य, प्रसाद और ओज को ही स्वीकार किया।


        आचार्य वामन द्वारा बताए हुए इन गुणों में अधिकांश काव्य तत्व निहित हैं। रीति इन गुणों से ही समन्वित है, जिससे उसका काव्य फलक अत्यन्त व्यापक हो गया है। इस व्यापकता के कारण ही आचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा मानते हुए कहा - रीतिरात्मा काव्यस्य ।


रीति के भेद - आचार्य वामन ने रीति के तीन भेद किए हैं –

 (1) वैदर्भी, (2) गौड़ी, (3) पांचाली।


(1) वैदर्भी रीति - इसमें माधुर्य व्यंजक वर्णों की योजना की जाती है जो श्रुतिमधुर एवं संगीतात्मक होते हैं। ललित पदयोजना के कारण यह श्रृंगार, करुण, हास्य रसों की अभिव्यक्ति में सहायक होती है। आचार्य वामन ने इसमें श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सौकुमार्य, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कान्ति और समाधि-इन दस गुणों का समावेश माना है, जबकि आचार्य मम्मट ने इसके मूल में केवल माधुर्यगुण को ही स्वीकार किया है।


वैदर्भी रीति से युक्त बिहारी का एक दोहा प्रस्तुत है :

रस सिंगार मज्जनु किए कंजनु भंजुन दैन।

अंजनु रंजनु हूं बिना खंजनु गंजनु नैन।।

 

(2) गौड़ी रीति - गौड़ी रीति में ओजपूर्ण वर्णों की योजना की जाती है। यह ओज और कांति गुणों से युक्त होती है । संयुक्त व्यंजन, ट वर्ग, , , आदि वर्णों का प्रयोग बहुलता से होता है। पदयोजना दीर्घ समासों से युक्त होती है। परुष वर्णों के कारण यह रीति, वीर, वीभत्स, रौद्र और भयानक रसों के लिए उपयुक्त मानी जाती है। वीर एवं रौद्र रसों का यह मूल आधार है। दीर्घ सामासिक पदावली वातावरण को प्रकाशित करती जान पड़ती है। सौकुमार्य एवं माधुर्य गुणों का अभाव होने से इसे परुषा वृत्ति भी कहा गया है। गौड़ी रीति का एक उदाहरण द्रष्टव्य है:

बोल्लहिं जो जय-जय मुण्ड-रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं।

खप्परन्हि खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह दहावहीं।

ओज गुण की व्यंजना के सभी उपादान इस छन्द में उपलब्ध हैं।


(3) पांचाली रीति - माधुर्य और सौकुमार्य गुणों से युक्त शिथिल पद वाली वह रचना जिसमें लघु समासों का प्रयोग किया गया हो पांचाली रीति कहलाती है। यह वैदर्भी और गौड़ी के बीच की रीति है। पद योजना यथासम्भव कोमलता लिए रहती है। इसलिए मम्मट ने इसे कोमला वृत्ति कहा है। दूसरा मूल गुण प्रसादहोता है।

 

पद्माकर के निम्न छन्द में पांचाली रीति है :

राति न सुहात, न सुहात परभात आली,

जब मन लागि जात काहू निरमोही सौं।

 

        आचार्य वामन के अनुसार वैदर्भी रीति में सभी दस गुण रहते हैं, जबकि गौड़ी रीति  में केवल दो गुण ओज और कांति विद्यमान होते हैं। पांचाली रीति में भी केवल दो ही गुण माधुर्य और सौकुमार्य रहते हैं। इन तीनों रीतियों के भीतर काव्य इस प्रकार समाविष्ट हो जाता है, जिस प्रकार रेखाओं के भीतर चित्र।


        आचार्य वामन ने वैदर्भी रीति को सर्वश्रेष्ठ माना है, क्योंकि इसमें सभी बीसों (दस शब्दगत और दस अर्थगत) गुण विद्यमान रहते हैं। इसीलिए वे रीति को काव्य की आत्मा भी स्वीकार करते हैं।


        वस्तुतः आचार्य वामन ने वैदर्भी रीति में सभी गुणों का समावेश मानकर और इस प्रकार इसे सर्वगु ण सम्पन्न कहकर बहुत बड़ी भूल की है। यह स्थिति काव्य में असम्भव ही है, क्योंकि कोई भी रचना सर्वगुण सम्पन्न कदापि नहीं हो सकती। आचार्य वामन के रीति सिद्धान्त में सबसे बड़ी शिथिलता यही है।


         परवर्ती आचार्यों-आनन्दवर्धन, मम्मट और विश्वनाथ ने इसी आधार पर आचार्य वामन की मान्यताओ का खण्डन किया। यद्यपि वैदर्भी रीति की श्रेष्ठता उन्होंने भी स्वीकार की, क्योंकि यह करुण और शृंगार जैसे सुकोमल रसों के बाह्य रूप का विधान करती है।


रीति का खण्डन - रीति सिद्धान्त का खण्डन इसके प्रतिपादन के तुरन्त बाद ही प्रारम्भ हो गया था। आचार्य वामन के परवर्ती आचार्यों ने आचार्य वामन द्वारा प्रतिपादित रीति सिद्धान्त का अनुमोदन एवं अनुकरण नहीं किया। कई आचार्यों ने तो आचार्य वामन का उपहास तक किया है।


        उदाहरण के लिए- आचार्य कुन्तक ने रीति को व्यर्थ बताते हुए लिखा- “तदलमनेन निस्सार वस्तु परिमल व्यसनेन।”

अर्थात् अजीहटाओ भी, कौन रीति जैसी निस्सार वस्तु के साथ अपना मगज खपाये।”


        इसी प्रकार ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन ने रीति का उपहास करते हुए लिखा- “जो लोग ध्वनि जैसे अवर्णनीय काव्य तत्व को समझ सकने में असमर्थ हैं, उन्हीं लोगों द्वारा काव्यशास्त्रीय जगत में रीतियां चला दी गईं।”


        रीति का खण्डन करने पर भी परवर्ती आचार्यों ने रीति को किसी-न-किसी रूप में स्वीकार अवश्य किया है - भले ही उसका नामकरण किसी और रूप में क्यों न किया हो। यहाँ हम कुछ प्रमुख आचार्यों के मत प्रस्तुत कर रहे हैं :


(1) आचार्य कुन्तक का मत - वक्रोक्ति को काव्य का प्राण मानने वाले आचार्य कुन्तक ने रीति को उस अर्थ में स्वीकार नहीं किया जो आचार्य वामन को अभिप्रेत था। उन्होंने रीति को एक नई दिशा प्रदान की और उसे कवि के स्वभाव से सम्बद्ध माना। उन्होंने रीति के लिए नए नाम सुझाए, जो निम्न हैं :

1. सुकुमार मार्ग (वैदर्भी रीति)

2. विचित्र मार्ग (गौड़ी रीति)

3. मध्यम मार्ग (पांचाली रीति)


        इस प्रकार यह कहना असंगत न होगा कि कुन्तक भी रीति की उपेक्षा न कर सके और यत्किंचित् रूप में उसके महत्व को भी उन्होंने स्वीकार किया। वे रीति को मार्गकहते हैं।


 (2) आचार्य मम्मट द्वारा रीति विवेचन - आचार्य मम्मट ने रीति को वृत्ति का पर्याय मानते हए इसे वृत्यनुप्रास नामक शब्दालंकार के अन्तर्गत निरूपित किया और आचार्य वामन के द्वारा निर्दिष्ट गुणों का निर्ममतापूर्ण खण्डन किया। उन्होंने वृत्ति की निम्न परिभाषा की : “वृत्तिः नियतवर्णगतोरसविषयोव्यापारः”


अर्थात् “नियत वर्णों का रस विषयक व्यापार वृत्ति (रीति) है।”


        उन्होंने तीन वृत्तियों और तीन ही गुणों को स्वीकार किया है। उन्होंने वर्णगुम्फको रीति का भेदक तत्व मानते हुए केवल तीन गुणों - माधुर्य, ओज, प्रसाद को मान्यता दी तथा तीन वृत्तियां स्वीकार कीं:


1. उपनागरिका वृत्ति - जिसे आचार्य वामन ने वैदर्भी रीति कहा है, उसे ही मम्मट ने उपनागरिका वृत्ति की संज्ञा प्रदान की है। यह माधुर्य गुण से युक्त होती है और श्रृंगार, करुण आदि कोमल रसों का उपकार करती है।


2. परुषा वृत्ति - ओज गुण के व्यंजक वर्णों से युक्त रचना को मम्मट ने परुषा वृत्ति कहा है। इसे आचार्य वामन के अनुसार गौड़ी रीति कहा गया है। यह वीर, रौद्र आदि कठोर रसों का उपकार करती है।


3. कोमला वृत्ति - प्रसाद गुण से युक्त रचना को पांचाली रीति या कोमला वृत्ति की संज्ञा प्रदान की गई है।


(3) आचार्य विश्वनाथ द्वारा किया गया रीति विवेचन – साहित्य दर्पण’ के रचयिता आचार्य विश्वनाथ ने रीति को पद संघटनाका नाम दिया, पर उसे काव्य की आत्मा स्वीकार नहीं किया।


(4) आचार्य रुद्रट का रीति विवेचन - इनके अनुसार रीतियों की संख्या चार है – वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली और लाटी ।


(5) आचार्य आनन्दवर्धन का रीति विवेचन आचार्यआनन्दवर्धन ने भी रीति पर विचार किया है और  रीति को संघटना का नाम देकर इसे समास से सम्बद्ध मानकर इसके तीन रूप स्वीकार किए – असमासा, अल्पसमासा और दीर्घसमासा है। उनके अनुसार संघटना का कार्य है गुणों के आश्रित रहकर रस को व्यक्त करना ।


    उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि अन्य आचार्यों ने आचार्य वामन के रीति सिद्धान्त को पूर्णतः स्वीकार तो नहीं किया पर वे उसकी नितान्त उपेक्षा भी न कर सके। रीति भले ही काव्य का अनिवार्य तत्व न हो, पर उसका महत्व किसी-न-किसी रूप में अवश्य है।


निष्कर्ष

(1) अलंकार सम्प्रदाय की अपेक्षा रीति सम्प्रदाय अधिक विकसित सम्प्रदाय है।


(2) काव्य का मूल रूप क्या है इसका रीति सम्प्रदाय में अधिक तार्किकता से विवेचन किया गया है।


(3) आचार्य वामन ने रीति सम्प्रदाय के अन्तर्गत गुणों के विवेचन द्वारा अलंकार से उनका पार्थक्य दिखलाया। इस प्रकार एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।


(4) अलंकार सम्प्रदाय की अपेक्षा इस सम्प्रदाय के आलोचकों की दृष्टि गहरी तथा पैनी है । भामह आदि अलंकारवादी आचार्य रस को काव्य में बहिरंग साधन मानते हैं, जबकि आचार्य वामन ने रीति विवेचन के द्वारा रस को काव्य के अन्तरंग धर्मों में गिना और इस प्रकार रस की महत्ता स्पष्ट की। आचार्य वामन रस को कान्ति नामक अर्थगत गुण के अन्तर्गत मानते हैं।


(5) पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र में रीति को शैली’ (Style) कहा गया और इसे काव्य के चार तत्वों में से एक माना गया। इस शैली तत्व को वे लेखक के व्यक्तित्व से सम्बन्धित मानते हैं।


    उक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भले ही रीति को काव्य का सर्वप्रमुख तत्व या प्राणतत्व न माना जाए, किन्तु रीति सम्प्रदाय का काव्यशास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान है।

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