अंधेरे में कविता का सारांश | andhere men kavita ka saransh | andhere men muktibodh
‘अंधेरे में’ (मुक्तिबोध) कविता का सारांश
अंधेरे में कविता का सारांश
Andhere men Kavita ka saransh
गजानन माधव मुक्तिबोध हिंदी-साहित्य में फैंटेसी-शैली के कारण
विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं । मुक्तिबोध फैंटेसी को काव्य-शिल्प का अनिवार्य अंग
मानते थे । ‘अंधेरे में’ फैंटेसी-शैली की एक अद्भुत रचना है।
मुक्तिबोध ने फैंटेसी काव्य-शैली को अनुभव की कन्या कहा है । ‘अंधेरे में’ एक स्वप्न-कथा है ।
मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ कविता ‘चाँद का मुँह टेढ़ा’ है में संकलित हैं। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है, कविता संग्रह में मुक्तिबोध की 28 कविताएं संगृहीत हैं । जिनमें ‘अंधेरे में’ सर्वाधिक चर्चित एवं प्रभावशाली कविता
है । ‘अंधेरे में’ कविता कल्पना
पत्रिका में सन् 1964 में ‘आशंका के द्वीप : अंधेरे’ में शीर्षक से प्रकाशित हुई थी।
‘अंधेरे में’ कविता कवि
की प्रतिनिधि कविता है और इसकी रचना 1957 से लेकर 1962 तक हुई थी। ‘अंधेरे में’ कविता
मुक्तिबोध की सबसे
लंबी कविता के रूप में भी जानी जाती है।
शमशेर
बहादुर सिंह ने कहा है, “अंधेरे में कविता देश के आधुनिक जन इतिहास का स्वतन्त्रता
पूर्व और पश्चात् का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज़ है । इसमें अजब और अद्भुत रूप से
व्यक्ति और जन का एकत्रीकरण है ।”
प्रभाकर
माचवे ने कहा है, “अंधेरे में Guernica in
Verse है। इसके बहुत से अंश पिकासो के विश्वप्रसिद्ध चित्र जैसा ही प्रभाव डालते
हैं।”
(Guernica
is a large 1937 oil painting by Spanish artist Pablo Picasso)
‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की लंबी कविता है। कविता आठ खंडों में विभाजित है।
पहला खंड : ‘अंधेरे में’ कविता में गहनतम अंधकार है। यह
अंधकार निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ के
अमा निशा से मिलता जुलता है। अंधेरा सामाजिक व्यवस्था और व्यक्ति के अवचेतन दोनों
स्तरों पर छाया हुआ है।
कविता के नायक में अंतर्विरोध है। एक तरफ तो
नायक ज़िंदगी के कमरों के अंधेरे में चक्कर लगाता है और दूसरी ओर वह शहर में
सक्रिय गतिविधियों को देखता है।
रक्तालोक स्नात पुरुष की कवि पूरी पहचान
बताता है। रक्तालोक स्नात पुरुष कवि की परम अभिव्यक्ति है, वह कवि की प्रतिभा की
पूर्णावस्था है। उसमें उदात्तता नहीं है। वह फटा हुआ वस्त्र पहनता है, उसका मुख मैला है और उसके वक्ष पर घाव हैं। यह चित्र जीवन संग्राम में
लड़ते हुए व्यक्ति का है। इस व्यक्ति का चित्र ‘राम की
शक्तिपूजा’ में युद्ध से लौटे हुए राम के वर्णन के समान है।
दूसरा खंड :
यह रक्तालोक
स्नात पुरुष कविता के दूसरे
खंड में वाचक से मिलने आता है । वाचक उसे अपने में समो लेना चाहता है। वाचक अपनी
कमजोरी के कारण उससे नहीं मिल पाता है।
मुक्तिबोध की कविता मध्यवर्ग की खोखली
कृत्रिमता से भी हमारा परिचय कराती है। कविता का यह खंड मध्यवर्गीय झिझक को भी खोल
कर सामने रखता है।
तीसरा खंड :
कविता के तीसरे खंड
में भय और आतंक
के वातावरण का प्रसार है। लेकिन उसके बीच कविता में कहीं-कहीं आस्था के एक सूत्र
की झलक मिल जाती है। व्यवस्था की अमानवीय साजिश और कवि आस्था के बीच टकराहट से
कविता में गहरी नाटकीयता पैदा होती है। कविता के नायक को व्यवस्था अपना शत्रु
समझती है। उसकी खोज करती है। कहने का अर्थ है विवेक को कोई भी व्यवस्था बर्दाश्त
करना नहीं चाहती है।
चौथा खंड : चौथे खंड में काव्य नायक अपने को चारों तरफ से घिरा हुआ पाता है। रात्रि का अंधकार
ऐसा सघन है कि हर चीज़ की परछाई भयंकर मालूम पड़ती है। कवि कविता के बीच-बीच में
मध्यवर्गीय स्वार्थ भावना की जमकर आलोचना करता है।
मुक्तिबोध की कविता मन की आंतरिक परत और
बाह्य संसार के यथार्थ दोनों स्तर पर सक्रिय है। कविता के इस अंश में भी वह बेचैनी
देखने को मिलती है।
पाँचवाँ खंड
: पाँचवें खंड में कविता में मन की आंतरिक दशाओं का वर्णन है। कवि के आंतरिक भाव लहर के
रूप में उसके मस्तिष्क में हलचल जगाते हैं। कवि का भावावेग और अनुभव मिलकर काव्य
विवेक की रचना करता है।
छठवाँ खंड :
कविता के छठे भाग में नाटक की
तरह कविता में सीन बदलता है। दमन चक्र का अनुभव कविता में घटित होता है। इस स्थल
पर कविता में गहरा सूनापन है।
इसी बीच काव्य नायक को तिलक की मूर्ति दिखाई
पड़ती है। वह मूर्ति लहुलुहान और घायल है, लेकिन उसमें अद्भुत संकल्प
शक्ति है। गांधी जी अपना उत्तरदायित्व काव्य नायक को सौंपते हैं। यहाँ आकर काव्य
नायक सक्रियता के महत्व से परिचित होता है। बुद्धिवाद की अकर्मण्यता की यहाँ
मृत्यु होती है। एक असफल जीवन-दृष्टि से काव्य-नायक मुक्त होता है। इसके बाद काव्य-
नायक भीषण यातनामय प्रक्रिया से गुजरता है। दमनतंत्र विचारों की सक्रियता को
प्रतिबंधित करता है। काव्य-नायक अब अभिव्यक्ति के संपूर्ण खतरे उठाने को तैयार है।
वह क्रांति के द्वारा परिवर्तन को तैयार हो जाता है।
सातवाँ खंड
: कविता के सातवे खंड में
काव्य-नायक दम छोड़कर भागता है। काव्य-नायक अपने वर्गीय चरित्र से परेशान है। यह
पूंजीवाद के भ्रम को समझता है वह इस छल से मुक्त होने की कोशिश करता है।
आठवाँ खंड: यह कविता का अंतिम खंड है कविता के इस खंड में पूंजीवादी शोषण में शोषक का
चेहरा स्पष्ट हो जाता है। बौद्धिक वर्ग भी इस शोषण में शामिल है। जन संचार माध्यम
भी इसी शोषण का एक अंग है। कविता में जनक्रांति की आशा जगती है। संघर्ष तीव्रतर
होता है। शोषित लोगो का दुख दर्द सामूहिक पीड़ा में रूपांतरित होता है। लेकिन
कविता में एकाएक स्वप्न बिखरता है। कविता के अंत में कवि जनता के बीच जाने की
आकांक्षा अभिव्यक्त करता है। वहीं से परम अभिव्यक्ति संभव है। कवि प्रत्येक चरित्र
की गतिविधि को देखता है और उसे जानने का प्रयत्न करता है।
‘अंधेरे में’ कविता का शिल्प और ढाँचा
फैंटेसी
शिल्प का प्रयोग : मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ में फैंटेसी
शिल्प का प्रयोग
मिलता है। यह फैंटेसी हमें किसी स्वप्न लोक में नहीं ले जाती है। यह फैंटेसी हमारे
अनुभव को अधिक वास्तविक ढंग से रखने का प्रयास करती है।
‘अंधेरे में’ कविता में फैंटेसी है। यह कविता स्वप्न में चलती है। कविता के इस स्वप्न
में हमारे जीवन के खुरदरे सच को जटिलताओं में अभिव्यंजित करने की ताकत है।
स्वप्न के भीतर स्वप्न में कविता गतिमान है।
व्यवस्था का आतंक और काव्य नायक का आत्म संघर्ष फैंटेसी को सघन और गहरा बनाते हैं।
कविता में डरे और सहमे हुए व्यक्ति की मनोवृत्ति की स्पष्ट छाया मिलती है। गोली
चलने का, रात में ट्रेन दुर्घटना अथवा लगातार भागने का दृश्य कविता में विद्यमान
है। कविता में हर स्थान पर भय का वातावरण बना हुआ है।
‘अंधेरे में’ कविता की भाषा: कवि नई भाषा में हमारे अनुभव को प्रस्तावित करने
का सार्थक प्रयास करता है। कविता संस्कृत के शब्दों के साथ उर्दू के प्रयोग से
भाषा की विजातीयता को प्रस्तुत करती है। कहानी और उपन्यास की भाषा को काव्यात्मक
अभिव्यक्ति देने में एक जोखिम है। मुक्तिबोध इस जोखिम को उठाते हैं। ‘अंधेरे में’ कविता में वर्णनात्मक भाषा का काव्यात्मक उपयोग मिलता है।
कविता का
नया सौंदर्ययशास्त्र : मुक्तिबोध की कविता तत्व अभिव्यक्ति और दृष्टि विकास के लिए संघर्ष करती
है। कविता का वैचारिक परिप्रेक्ष्य हो अथवा शिल्प कहीं भी कवि के लिए रास्ता बना
बनाया नहीं है। गहन अनुभव और तीव्र वैचारिक संघर्ष के बाद वे कविता को प्राप्त
करते हैं। इसलिए उनकी कविता पारंपरिक काव्य ढाँचा तोड़कर नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ती
है।
महाकाव्यात्मक
ढाँचा : ‘अंधेरे में’ कविता का ढाँचा महाकाव्यात्मक है। इस कविता का नायक किसी मिथक से पैदा
नहीं हुआ है। वह अपने समय की व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़ा एक साधारण मनुष्य है।
वह अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए कृतसंकल्प है, लेकिन
उसमें अपनी कमजोरियाँ भी हैं जिसका बेबाक वर्णन मुक्तिबोध करते हैं।
इस
स्पष्टवादी मनोवृति के कारण ही मुक्तिबोध की कविता में अराजकता मिलती है। इस
अराजकता में एक शक्ति है। यह शक्ति उन्हें अंधकार से लड़ने का साहस देती है।
अंधेरे में
कविता का मुख्य प्रतिपाद्य :
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज की समस्त
अर्थपूर्ण इकाइयाँ और मूल्य आधुनिक सभ्यता के दबाव में विश्रृंखलित और अर्थ शून्य
हो गये थे उनके टूटन की गहन पीड़ा भारतीय आत्मा में दिखाई पड़ रही थी। मुक्तिबोध
ने इन स्थितियों का सामना किया था।
मुक्तिबोध की इस कविता में मध्यवर्ग के छल के
प्रति तीव्र वितृष्णा का भाव मिलता है। ‘अंधेरे में’ कविता यदि एक तरफ समाज का सच है तो दूसरी तरफ कवि मुक्तिबोध के अपने
आत्म-संघर्ष की कहानी भी है। इस कविता में कवि ने मध्यवर्ग की मानसिकता की गहरी
आलोचना की है।
मध्यवर्ग के सामने आदर्श और सिद्धांत का एक
प्रतिमान होता है। वह उससे निर्धारित मूल्यों के बीच जीना चाहता है। लेकिन
सिद्धांत और मूल्यों का जाल ऊपर से ही दिखाई देता है। क्योंकि मध्यवर्ग के अंतःकरण
में सुविधा भोग के प्रति आकर्षण बना रहता है। वह सुविधावाद के लिए अपने मूल्यों और
सिद्धांतों को त्यागने में नहीं हिचकता है।
मध्यवर्ग के बाह्य व्यक्तित्व और आंतरिक
व्यक्तित्व में काफी फर्क होता है। मुक्तिबोध इस भ्रमजाल के आलोचक हैं। मध्यवर्ग
की कृत्रिम और खोखली ज़िदगी में आत्मा के लिए कोई स्थान नहीं है।
पेट की चिंता में आत्मा को बेचने की
प्रवृत्ति गलत है। मुक्तिबोध के लिए अनात्म होना उदात्त मूल्यों से हीन होना है।
कवि का विश्वास शाश्वतता में नहीं है, शाश्वत मानवीय मूल्यों में है।
इसलिए व्यभिचारी का बिस्तर होना कवि के लिए असह्य है। व्यभिचार को आडंबर से ढक
देना दोषपूर्ण है।
मध्यवर्ग में जीवन के प्रति निष्क्रियता का
बोध विकसित हुआ है। पूंजीवाद ने सर्वप्रथम उसे अकेला बनाया फिर उसे स्वार्थी बनने
की दिशा में प्रेरित किया। दुःख भी उसके
लिए दिखावे का साधन है। दुःख में वेदना होना स्वाभाविक है, परंतु उन दुखों को समाज में
तमगे सा दिखाने की मानसिकता गलत है।
अपने स्वार्थ को प्राथमिक मानना भी उचित नहीं
है। राष्ट्र, समाज, जीवनदर्शन और विचार को स्वार्थ केंद्रित
बनाने की प्रवृत्ति गलत है। अकेलेपन में सकर्मक कार्य क्षमता कुंठित होती है। जीवन
का उल्लास और उमंग मंद पड़ता है।
ज़िंदगी में दिशा और उद्देश्य का होना ही
आवश्यक नहीं है, उसके लिए प्रयत्नशील होना भी जरूरी है। मध्यवर्ग में निश्चित दिशा और
उद्देश्य का ही अभाव नहीं है, उसमें सकर्मक प्रयत्न का अभाव
भी दिखाई पड़ता है।
स्वार्थी मनोवृत्ति ने मनुष्य को संवेदनहीन
बना दिया है। संवेदना और भाव मनुष्य की संस्कृति की सर्वोत्तम उपलब्धि है। करुणा
और प्रेम मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है। आधुनिक सभ्यता के दबाव में यह तंतु टूटकर
बिखर गया है। मनुष्य में मनुष्य के प्रति
जो पीड़ा होनी चाहिए. यह जड़ हो गई है। करुणा को त्यागकर मनुष्य पत्थर हो गया है।
स्वार्थ ने उसकी मनुष्यता को नष्ट कर दिया है। स्वयं के लिए पशु भी जी लेता है।
ऐसा जीवन यांत्रिक और जड़ होता है। उस प्रकार के जीवन में रचनात्मक संभावना नहीं
होती है।
ऐसा
जीवन उपलब्धिहीन जीवन है। ऐसा जीवन व्यर्थताबोध की कुंठा से ग्रसित रहता है।
आत्मकेंद्रित और व्यक्ति केंद्रित मानसिकता के कारण देश तबाह हो गया परंतु
स्वार्थों का नाश नहीं हुआ है। कवि की चिंता इसी बात को लेकर है।
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