मनोविश्लेषणवाद क्या है | Manovishleshanvad Kya Hai | मनोविश्लेषणवाद | Manovishleshanvad

 
मनोविश्लेषणवाद क्या है
Manovishleshanvad Kya Hai 

Sigmund Freud ka Manovishleshan ka Siddhant 
मनोविश्लेषणवाद क्या है | Manovishleshanvad Kya Hai | मनोविश्लेषणवाद | Manovishleshanvad


          मनोविश्लेषण शब्द अंग्रेजी के साइको-एनलसिस(Psycho-analysis) शब्द का हिंदी पर्याय है । 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud, 1856-1939) द्वारा मानसिक रोगियों का इलाज करते हुए स्नायविक व मानसिक विकारों के संबंध में सुझाया गया सिद्धांत व व्यवहार मनोविश्लेषण कहलाता है। चिकित्सा की यह विधि जिन मूल सिद्धांतों पर आधारित है उन सिद्धांतों के स्पष्टीकरण, समर्थन, विरोध आदि के कारण फ्रायड के समय से लेकर अब तक मनोविश्लेषण ने इतनी प्रगति कर ली है कि आधुनिक युग कि कोई भी विचारधारा इसके प्रभाव से अछूती नहीं रह सकी । आज हम manovishleshanvad kya hai विषय का विस्तार से अध्ययन करेंगे । 



        आधुनिक युग में जिस प्रकार राजनीति और आर्थिक व्यवस्था पर मार्क्सवाद का प्रभाव पड़ा है, उसी प्रकार कला, साहित्य और समाज पर मनोवैज्ञानिक खोजों तथा नये-नये मनोविश्लेषण सिद्धांतों का बड़ी गहराई से प्रभाव पड़ा है ।

        साहित्य का संबंध मानव-मन से है । साहित्य जो विभिन्न चरित्रों का चित्रण करता है, वह किसी न किसी मनोवैज्ञानिक आधार पर होता है । साहित्यकार को उसका ज्ञान हो या न हो, पर उसके चित्रणों में मानव-मन के क्रिया-कलाप ही यथार्थ अथवा काल्पनिक रूप में प्रतिबिंबित होते हैं । चाहे कविता हो, चाहे कथा-साहित्य अथवा चित्रकला  या मूर्तिकला, सभी मानव-मनःस्थितियों का ही चित्रण करती हैं।


        आधुनिक विचार-जगत् में फ्रायड और मार्क्स ने भारी क्रांति की है और आधुनिक विचारधारा, जीवन-दृष्टि, नैतिक मान्यताओं आदि का इन दोनों ने जितना अधिक प्रभावित किया है उतना किसी अन्य ने नहीं । फ्रायड ने मनुष्य के अंतर्जगत का सूक्ष्म-गहन विश्लेषण किया है और मार्क्स  ने मानव के बहिर्जगत का समग्रता में गहन-चिंतन । फ्रायड के चिंतन से प्रभावित होकर मनोविश्लेषणवादी आलोचना की नींव पड़ी जिसे फ्रायड के साथ-साथ एडलर और युंग ने अपने-अपने ढंग से आगे बढ़ाया।


        मनोविश्लेषण शास्त्र के प्रर्वतक के रूप में फ्रायड प्रसिद्ध हुए । एडलर और जुंग शुरूवात में फ्रायड के शिष्य, अनुगामी और सहयोगी थे, किंतु आगे चलकर उनकी मान्यताएं फ्रायड से अलग हो गईं । फलतः उन्होंने अपनी मान्यताओं को स्वतंत्र सिद्धांतों का रूप दिया। इस भेद के कारण तीन नामों का प्रयोग किया गया –


    (1) फ्रायड- मनोविश्लेषण (साइको-एनलसिस),

    (2) एडलर- व्यष्टि मनोविज्ञान (इंडिविजुअल साइकॉलॉजी) तथा

    (3) जुंग - विश्लेषण मनोविज्ञान (एनलिटिकल साइकॉलॉजी)।

     यहाँ इन तीन मनोविश्लेषणशास्त्रियों के सिद्धांतों का सार-संक्षेप प्रस्तुत करना अपेक्षित है ।


    1. सिग्मंड फ्रायड Sigmund Freud (1856-1939)


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    Sigmund Freud ka Manovishleshan ka Siddhant 

        मनोविश्लेषण शास्त्र के प्रवर्तन का श्रेय सिग्मंड फ्रायड (1856-1939) को दिया जाता है । इनका जन्म मोराविया में 6 मई,  1856 को हुआ था । उन्होंने विएना में चिकित्सा विज्ञान का मनोयोग से अध्यययन किया और तंत्रिका-विज्ञान में विशेष दक्षता प्राप्त की । उन्होंने एक स्वतंत्र पद्धति विकसित की जिसे ‘मनोविश्लेषण पद्धति’ नाम दिया गया।  फ्रायड ने बहुत लेखन कार्य किया । इनकी प्रमुख कृतियां - ‘इण्ट्रोडक्ट्री लेक्चर्स ऑन साइकोअनैलिसिस’, ‘दि इगो एंड दि इड’, ‘इण्टरप्रेटेशन ऑफ ड्रीम्स’ इत्यादि हैं । फ्रायड के ग्रंथों से मनोविश्लेषण का एक जबर्दस्त औजार चिकित्सकों को मिल गया जिसका आज तक उपयोग हो रहा है ।

         फ्रायड की मनोवैज्ञानिक पद्धति को हम तीन विषयों में बाँट सकते हैं- (1) अचेतन मन, (2) लिबिडो या काम-वृत्ति तथा (3) ग्रंथियाँ।

     
    () अचेतन मन (Unconscious Mind)


        फ्रायड की स्थापना है कि मनुष्य का मन बर्फ के शिलाखंड (आइसबर्ग) के समान है । उसका जो भाग दिखाई देता है, वह पूरे हिमखंड का एक छोटा अंश होता है । उसका बहुत बड़ा भाग अदृश्य रहता है, परंतु कुछ भाग समुद्र के भीतर पानी में डूबा होने पर भी दिखाई देता है । यही स्थिति मानव मन की भी होती है । उसके मन के तीन भाग होते हैं- चेतन मन (Conscious Mind),  अवचेतन या अर्द्धचेतन मन (Subconscious Mind) तथा अचेतन मन (Unconscious Mind)




         चेतन मन (Conscious Mind) से हम सब देखते और अनुभव करते हैं, पर अचेतन मन (Unconscious Mind) दमित इच्छाओं, आकांक्षाओं और सुप्त वासनाओं का एक शक्तिशाली पुंज है । मन का यह भाग हमारे लिए अज्ञात, अभेद्य एवं रहस्यमय रहता है । इन दोनों के बीच अर्द्धचेतन या अवचेतन (Subconscious Mind) वह खंड है जिस पर अचेतन की परछाई पड़ती रहती है।

         निद्रा के समय जब चेतन मन (Conscious Mind) निष्क्रिय हो जाता है, तब अचेतन मन (Unconscious Mind) की इच्छाएं और वासनाएं अवचेतन (Subconscious Mind) पर स्वप्न के रूप में प्रतिबिंबित होती हैं।

        फ्रायड का मत है कि चेतन और अचेतन में द्वंद्व चलता रहता है । चेतन मन, व्यक्ति, परिवार और समाज की नैतिकता और मर्यादा के संस्कारों से ओतप्रोत होता है; अतः जब अचेतन की इच्छाएं और वासनाएं चेतन के धरातल पर आने लगती हैं,  तब चेतन के संस्कार उसका प्रतिरोध और निषेध  करते है, वे सामाजिक एवं अनैतिक वासनाओं का दमन करते हैं । इस दमन के कारण मानसिक वर्जनाएं और ग्रंथियाँ निर्मित हो जाती हैं । इन ग्रंथियों के कारण मानसिक विकृतियां उत्पन्न होती हैं,  परंतु कभी-कभी अचेतन की इच्छाएं और वासनाएं, चेतन मन के द्वारा परिष्कृत एवं उदात्त रूप में अभिव्यक्त की जाती हैं - यही अभिव्यक्ति कला और साहित्य का रूप धारण करती है ।


    (ख) लिबिडो या काम-वृत्ति (Libido)


         फ्रायड,  मनुष्य के सभी क्रिया-कलाप के मूल में काम-वृत्ति को मानते हैं। धर्म, अर्थ, साहित्य और संस्कृति की मूल प्रेरणा भी यही काम-वृत्ति है । मनुष्य  की कुण्ठित और दमित असामाजिक इच्छाएं और प्रवृत्तियां उदात्त और परिष्कृत होकर कलाओं और संस्कृतियों का निमार्ण करती हैं । फ्रायड काम-वृत्ति को ही साहित्य-सर्जना की मूल प्रेरणा मानते हैं । उनका विचार है कि साहित्यकार कल्पनाशील होता है, अतः वह अपनी वर्जनाओं को काम-प्रतीकों के रूप में प्रकट करता है।

         कला और साहित्य-सृजन काम-प्रतीकों का पुनर्निमाण है। कला के रहस्य को तभी समझा जा सकता है जब हम कलाकार की सृजन-प्रक्रिया का पूरा विश्लेषण  करें । उनका विचार है कि केवल कला ही नहीं, वरन् प्रत्येक सर्जनात्मक क्रिया में अवचेतन मन की वासनाएं विद्यमान रहती हैं । इस प्रकार स्वप्न कल्पनाएं,  योजनाएं,  आदि मानसिक व्यापार भी कविता या कला के समान ही हैं । ये काम-तृप्ति के रूप हैं ।

     

    () ग्रंथियाँ या वर्जनाएँ (Complexex)


        फ्रायड का मत है कि इच्छाओं और वासनाओं के  दमन से ग्रंथियां या कुण्ठाएं निर्मित हो जाती हैं । उनके (वासनाओं) उदात्तीकरण से ग्रंथियां खुलती हैं और कुण्ठाएं दूर हो जाती हैं और इस उदात्तीकृत परिष्कृत क्रिया-कलाप से सभ्यता का विकास एवं सांस्कृतिक मूल्यों का निर्माण होता है । आदिम बर्बर वासनाएं एक सुसंस्कृत व्यवहार का रूप धारण करती हैं ।  कला और साहित्य भी इसी का एक रूप है । फ्रायड का विचार है कि वासनाओं की तृप्ति का सुख तीव्र होता है, जबकि कला और साहित्य का आनंद मंद और आह्लादमय होता है;  पर वह सामूहिक होता है और अधिक स्थायी भी ।

         वासनाओं की तृप्ति शारीरिक अधिक होती है, कला का आनंद मानसिक होता है । कला संप्रेषणपरक है, अतः उसका सामाजिक महत्व है तथा उसका साधारणीकरण भी होता है । उसी के द्वारा समाज के चेतन-संस्कार बनते हैं । कलात्मक अभिव्यक्ति कुण्ठाओं और ग्रंथियों से मुक्ति प्रदान करती है । इसीलिए वह कलाकार के लिए आनंद का श्रोत है ।

        इडिपस कुंठा(Oedipus Complex) का फ्रायड के सिद्धांत में विशेष महत्व है, जो ग्रीक नायक इडिपस (जिसने अनजाने में अपने पिता की हत्या करके अपनी माता से विवाह किया था) के नाम पर है ।

        ऐसा माना जाता है कि एक पुत्र अपने पिता की तुलना में अपनी माँ से कुछ अधिक प्यार करता है । ठीक इसी प्रकार एक पुत्री अपनी माँ की तुलना में अपने पिता से अधिक प्यार करती है या उनके अधिक करीब होती है । यह इसी इडिपस कुंठा(Oedipus Complex) के कारण होता है।

         कला और साहित्य पर फ्रायड का गहरा प्रभाव पड़ा । फ्रायड के अनुसार कला और धर्म दोनों का उद्भव अचेतन मानस की संचित प्रेरणाओं और इच्छाओं से ही होता है। दमित वासनाएँ जब उदात्त रूप में अभिव्यक्ति पाती हैं, तो साहित्य और कला को जन्म देती हैं। साहित्य, कला, धर्म आदि सभी को फ्रायड इन्हीं संचित वासनाओं और प्रेरणाओं से उद्भूत मानते हैं । 


    2. एल्फ्रेड एडलर (Alfred Adler, 1870-1937)


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         फ्रायड के बाद एडलर का महत्वपूर्ण योगदान है । एडलर वैयक्तिक मनोविज्ञान (Individual Psychology) के प्रवर्तक हैं। उनका विचार है कि जीवन का एक निश्चित लक्ष्य होता है और प्रत्येक मनुष्य  में अपने को स्थापित करने की प्रवृत्ति होती है। प्रायः प्रत्येक मनुष्य में किसी न किसी प्रकार की आंगिक, क्रियात्मक या मानसिक कमी पायी जाती है जिसको वह अनुभव करता है और उसमें हीनता-ग्रंथि (Inferiority Complex) का निमार्ण होता है । उसकी पूर्ति का प्रयास मनुष्य विविध प्रकार से करता रहता है । हीन-भावना के कारण, जब मनुष्य विशेष रूप से इस कमी को पूरा करने की कोशिश  करता है, तब उसमें श्रेष्ठता की भावना का उदय होता है । इसे श्रेष्ठता-ग्रंथि (Superiority Complex) कहते हैं। जो लोग दंभी और अपने को श्रेष्ठ प्रदर्शित करने का प्रयत्न करते हैं तथा असभ्य व्यवहार करते हैं,  वे वास्तव में हीनता की भावना से ग्रस्त होते हैं । इन दोनों भावनाओं का अतिरेक व्यक्तियों को मानसिक रोगी बना देता है।

        एडलर के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी जीवन-शैली होती है । उनका विचार है कि जब तक बालक में काम-वृत्ति का विकास होता है, तब तक उसकी जीवन-शैली बन चुकी होती है; जिसका निर्माण उसकी निजी विलक्षणताओं से होता है, न कि काम-वासनाओं से । उनके अनुसार जीवन में तीन समस्याएं प्रमुख होती हैं - समाज विषयक, व्यवसाय विषयक तथा काम और विवाह विषयक । इनमें से एक भी समस्या में असफल होने पर वह जीवन से पलायन करता है और उसकी क्षतिपूर्ति के लिए कोई कार्य करता है।  इन्हीं पूर्ति के कार्यों से कला और साहित्य की रचना होती है । इन रचनाओं से व्यक्ति के अहंभाव और असामाजिक भावना का निवारण होता है । इस प्रकार साहित्य और कला विश्वबंधुत्व की भावना को व्यापक बनाकर सामाजिक जीवन को विकसित करते हैं ।

       

    3. कार्ल गुस्ताफ जुंग (Carl Gustav Jung, 1875-1961)


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         जुंग, फ्रायड के समकालीन और सहयोगी थे । ये मौलिक चिंतक थे और इन्होंने विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान (Analytic-Psycho-Analysis) का विकास किया । जुंग ने अचेतन का महत्व स्वीकार किया, पर उसे दो स्तरों में रखा । प्रथम वैयक्तिक (Individual Unconscious) और द्वितीय जातीय या सामुदायिक अचेतन (Community Unconscious) । फ्रायड ने अचेतन को दमित इच्छाओं और वासनाओं का रहस्यमय भण्डार माना है, पर जुंग का मत है कि वह वैयक्तिक अचेतन का अंश है ।

        इसके परे एक सामूहिक या जातीय अचेतन का स्तर है । यह एक प्रकार से ऐतिहासिक एवं परंपरागत संस्कार भूमि है । सामूहिक अचेतन में जुंग के अनुसार ‘एनिमस’ और ‘एनिमा’ विद्यमान रहते हैं । ‘एनिमस’ नारी-सुलभ गुणों का समूह है और ‘एनिमा’ पुरूष-गुणों का समूह है । उन्होंने व्यक्तित्व को दो कोटियों में विभाजित किया है - एक बर्हिमुखी (Extrovert) तथा दूसरी अंतर्मुखी (Introvert)।

       

         इनमें से प्रत्येक में चार प्रकार की मानसिक शक्तियां रहती हैं - (1) विचार, (2) भाव, (3) संवेदन और (4) सहज ज्ञान या अंतर्दृष्टि । यह मानसिक शक्ति या ऊर्जा ही सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति है ।

         फ्रायड जहाँ काम-शक्ति  को सभी क्रियाओं के मूल में मानते हैं और एडलर जहाँ आत्म-प्रकाशन की प्रवृत्ति को सभी कार्यों की प्रेरणा मानते हैं, वहाँ जुंग इसी मनःशक्ति  या मानसिक ऊर्जा को मुख्य प्रेरक शक्ति  के रूप् में प्रतिष्ठित करते हैं ।

         इस प्रकार जुंग का मनःशक्ति या मानसिक ऊर्जा का सिद्धांत,  फ्रायड के काम-शक्ति और एडलर की आत्म-प्रकाशन-वृत्ति से अधिक स्वस्थ है और अधिक व्यापक सिद्धांत है। यह शक्ति मनुष्य की विकासशीलता, संस्कृति रचनाशीलता और प्रजननशक्ति तथा अन्य कार्यकलापों की प्रेरक है और उसका मूल स्त्रोत भी है ।

         जुंग कविता का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, कवि के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से भिन्न वस्तु मानते हैं । इसी प्रकार जुंग मनोवैज्ञानिक साहित्य और कल्पनामूलक साहित्य की सृजन प्रक्रिया को दो भिन्न प्रकारों के रूप में मानते हैं ।

        जुंग का विचार है कि मनोविज्ञान, कला की मूल प्रकृति का अध्ययन नहीं कर सकता,  उसके द्वारा केवल उसके रूप-विधान की विवेचना की जा सकती है । कला की आधारभूत प्रकृति की व्याख्या मनोविज्ञान के  सीमित मानदण्डों के सहारे नहीं की जा सकती है । इसका अध्ययन सौंदर्यात्मक दृष्टिकोण से ही संभव हो सकता है । 


    4. साहित्य, साहित्यालोचना और मनोविश्लेषणवाद का संबंध



          अब तक आप समझ गए होंगे कि manovishleshanvad kya hai।  फ्रायड के चिंतन को केन्द्र में रखकर ‘चेतना प्रवाह विधि’ (स्ट्रीम ऑफ कॉनशसनेस) की शिल्प विधि का विकास-विस्तार हुआ। इस शिल्प विधि के प्रयोग का सर्वोत्तम उदाहरण जेम्स ज्वाइस का प्रसिद्ध उपन्यास  ‘युलिसीज’ (1922 ई.) है, जिसका बहुत से रचनाकारों ने अनुकरण किया ।

        अवचेतन सिद्धांत को आधार बनाकर ही चित्रकला के क्षेत्र में ‘अतियथार्थवाद’ का उद्भव-विकास हुआ । साथ ही मनोविश्लेषण के प्रभाव से कविता-नाटक तथा कथा साहित्य में चरित्र-चित्रण में नए ढंग की बारीकियां आई हैं । जुंगीय चिंतन से प्रभावित होकर आद्य-बिंबों, मिथकों और पुराणों के अध्ययन की नवीन दिशाएं खुलीं हैं । मनोविश्लेषण की ऐसी बहुत-सी मान्यताएं हैं जिन्होंने  साहित्यालोचना को प्रभावित किया है,  जैसे :

           1. कला यौन-भावना की विकृतियों से मुक्ति का साधन है।

           2.  कलाकार मूलतः ‘न्यूरोटिक’ (विक्षिप्त) होता है ।

           3.  कला की शक्ति उदात्तीकरण (Sublimation) है ।

           4.  कला एक प्रकार की फैंटेसी है ।

           5.  स्वप्न और कल्पना में भीतरी भेद नहीं है ।

      6. कला में प्रयुक्त बिंबों-प्रतीकों-लयों के विवेचन में मनोविश्लेषण की प्रासंगिकता है ।

          7. आद्य बिंबों और सामूहिक अवचेतन से मिथकों का सृजन कार्य संपन्न होता है ।



    5. हिंदी साहित्य में मनोविश्लेषण का प्रभाव



    भारत में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों  पर आधारित मनोविश्लेषणात्मक पद्धति का समुचित विकास नहीं हुआ है । तथापि हिंदी साहित्य में manovishleshan का कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा है । 

    कुछ साहित्यकारों और उनकी रचनाओं के मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन का फुटकर प्रयास हुआ है । जहाँ तक  हिंदी साहित्यकारों का सवाल है उनमें जैनेन्द्र कुमार, भगवती प्रसाद वाजपेयी, इलाचंद्र जोशी, यशपाल (दादा कामरेड), रघुवंश (तंतजाल), मोहन राकेश (अँधेरे बंद कमरे), आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है ।

     हिंदी में मनोवैज्ञानिक उपन्यास लिखने की शुरूवात जैनेन्द्र से मानी जाती है ।  उनके पहले उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में नगेन्द्र ने मनोवैज्ञानिक गहराई के अभाव की शिकायत की है । उनके अनुसार प्रेमचंद के उपन्यासों में अंतर्द्वंद्व एवं अंतर्जगत की समस्यायों की चित्रण का अभाव है । लेकिन यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद के उपन्यासों में जैविक मनोविज्ञान का अभाव भले ही हो उनकी सामाजिक मनोविज्ञान की समझ अत्यंत पुष्ट रूप में हमारे सामने आती है ।

    जैनेन्द्र के उपन्यास परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी आदि और कहानियों में मनोविज्ञान का प्रभाव लक्षित होता है । लेकिन उनके उपन्यासों को फ्रायडीयन नहीं कहा जा सकता है । खुद जैनेन्द्र ने माना है कि फ्रायड को काफी दिनों तक पढ़ा ही नहीं था । लेकिन अज्ञेय के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अज्ञेय एक बहुपठित लेखक हैं । ‘शेखर एक जीवनी’ की रचना के समय उन्होंने न केवल मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का अध्ययन किया हुआ था बल्कि अन्य आधुनिक सिद्धांतों एवं विचारधाराओं समेत अनेक महत्वपूर्ण पश्चिमी साहित्य का अध्ययन किया हुआ था ।

    ‘शेखर एक जीवनी’ इसका प्रमाण है, जिसमें शुरू से अंत तक पठनीयता देखने को मिलती है ।  ‘शेखर एक जीवनी’ में मनोविज्ञान का प्रभाव सबसे ज़्यादा उसके नायक शेखर के चरित्र और उसके कार्यों में देखने को मिलता है। उपन्यास में शेखर के जन्म से लेकर जवानी तक का चरित्र-चित्रण मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर हुआ है। इस रूप में इसका जैविक मनोविज्ञान काफी हद तक प्रामाणिक रूप में सामने आता है ।


    6. हिंदी आलोचना पर मनोविश्लेषण का प्रभाव



    manovishleshanvad kya hai समझ लेने के बाद अब हम यह देखेंगे कि हिंदी आलोचना और विश्लेषण पर manovishleshan का क्या प्रभाव है । 

    मनोविश्लेषण संबंधी इन सिद्धांतों के आधार पर साहित्य में मनोविश्लेषणवादी आलोचना प्रणाली ने जन्म लिया है। अंग्रेजी साहित्य में डी.एच. लॉरेंस और जेम्स जॉयस इस प्रवृति के प्रमुख लेखक हैं हिंदी साहित्य में इलाचन्द्र जोशी, जैनेन्द्र अज्ञेय आदि के साहित्य पर मनोविश्लेषण का प्रभाव देखा जा सकता है ।

    हिंदी आलेाचना में मनोविश्लेषणवादी आलोचना एक स्वतंत्र आलोचना पद्धति के रूप में तो विकसित नहीं हुई है लेकिन मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण के सिद्धांतों का विशेषकर फ्रायड, एडलर, जुंग के प्रमुख सिद्धांतों का गहरा प्रभाव हिंदी आलोचना में देखा जा सकता है। आई.ए. रिचर्ड्स की तरह मनोविज्ञान का उपयोग आचार्य रामचंद्र शूक्ल ने सैद्धांतिक व्यावहारिक आलोचना में किया । फ्रायडीय सिद्धांत दृष्टि का उपयोग डॉ. नगेन्द्र ने छायावाद के विश्लेषण  में किया ।

    अवचेतन सिद्धांत का हिंदी आलोचना में प्रभाव काफी गहरा है । अज्ञेय ने शेखर एक जीवनी’ तथा ‘नदी के द्वीप’ में तथा कहानियों-कविताओं में व्यापक स्तर पर मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि को अपनाया । उनका आलोचना कर्म भी फ्रायड, एडलर, जुंग से प्रभावित-आंदोलित हुआ ।

    अज्ञेय के साथ ही इलाचंद्र जोशी तथा जैनेन्द्र कुमार मनोविश्लेषण की ओर पूरी तरह झुक गए । कवि-आलेाचक गजानन माधव मुक्तिबोध ने मनोविश्लेषण से प्रभावित होकर हिंदी आलोचना में प्रथम बार ‘फैण्टेसी  पर विचार करते हुए उसकी महत्व-प्रतिष्ठा की है। रचना-प्रक्रिया, वस्तु और रूप पर मनोविश्लेषण की स्थापनाओं को ध्यान में रखकर बात की।


    निष्कर्ष


    हिंदी आलोचना ने मनोविश्लेषण के सिद्धांतों से प्रभावित होते हुए भी आलोचनात्मक मापदंड के रूप में इस शास्त्र  को ग्रहण नहीं किया है । मनोविश्लेषणवादी आलेाचना की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह कलाकृतियों को विश्लेषित करने की प्रविधि-प्रक्रिया तो देती है लेकिन मूल्य-दृष्टि नहीं देती । मूल्य-दृष्टि के बिना आलोचना-कर्म में  मूल्यांकन संभव नहीं है। रचनाओं के कथ्य और रूप विश्लेषण में यह पद्धति सहायक तो है पर इसे समग्रता में आलोचना-कर्म का आधार नहीं बनाया जा सकता है ।

    मनोविश्लेषण  किसी वस्तु के उत्कर्ष-अपकर्ष का निर्णय नहीं कर पाता । वह न तो उसकी कलात्मक संभावना के विषय में कुछ कह सकता है न कलात्मक सफलता-असफलता का निर्धारण ही कर पाता है । कला की कोई भी वस्तु उसके लिए मानसिक प्रक्रिया मात्र है - वह कलात्मक संवेदनशीलता से पाठक का साक्षात्कार नहीं करा पाता है ।

    अतः साहित्य और साहित्यालोचना की दृष्टि से मनोविश्लेषण की एकांगिता और अनुपयोगिता स्पष्ट है ।

    फिर भी हिंदी के मनोविश्लेषणवादी समीक्षकों ने उसी साहित्य को उत्कृष्ट माना है जो जीवन-शक्ति प्रदान करने में समर्थ हो। यदि कलाकार अपनी दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति और हीनता की क्षतिपूर्ति स्वस्थ दिशा में करता है तो वह महान रचना का सृजन कर सकता है । इस तरह आम तौर पर लेखकों और समीक्षकों ने मनोविश्लेषणवाद की कुछ मूलभूत मान्यताओं को अपनाया और उन्हें अपने-अपने ढंग से अन्य विचारों के साथ जोड़कर अपनाया। यह समीक्षा प्रणाली किसी न किसी रूप में आज भी जीवित है ।

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