शब्दकोश-निर्माण की प्रक्रिया | Shabdkosh Nirman Ki Prakriya

 

शब्दकोश-निर्माण की प्रक्रिया 

Shabdkosh Nirman Ki Prakriya 



शब्दकोश-निर्माण की प्रक्रिया  | Shabdkosh Nirman Ki Prakriya



    शब्दकोश का निर्माण अपने आप में एक बहुत जटिल और लंबी प्रक्रिया है। शब्दकोश बनाने की प्रारंभिक योजना से लेकर उसके छप जाने तक की प्रक्रिया काफी श्रम और समय की माँग करती है । यह जानकार आश्चर्य होता है कि ‘ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी कोश’ को बनने में चालीस वर्ष लगे थे। यह कार्य 1888 में शुरू हुआ था और 1928 में समाप्त हुआ। कई बड़े ऐतिहासिक कोशों के पूरे खंडों को छपने में तो 100-150 वर्ष भी लग जाते हैं।

         कोश-निर्माण का कार्य विभिन्न भाषा-समाजों में बहुत समय से होता आ रहा है। ज्ञान के क्षेत्र में जागरूक विद्वान इसे अपना दायित्व समझ कर निभाते रहे हैं। उदाहरण के रूप में हम "निघंटु" का नाम ले सकते हैं जो वैदिक संस्कृत कोश है।

        फालेन तथा जॉन शेक्सपियर द्वारा तैयार किए गए आरंभिक हिन्दी-अंग्रेजी कोश इसी कोटि में आते हैं। अंग्रेजी को भारत में व्यापार और प्रशासन के लिए भारतीय लोगों से संपर्क की जरूरत पड़ी और उन्होंने द्विभाषिक कोश तैयार किए।

         जहाँ तक कोश-निर्माण के दायित्व का प्रश्न है यह व्यक्ति और संस्था दोनों के द्वारा वहन किया जाता है। भाषा के प्रति निष्ठावान और जागरूक विद्वान इस कार्य में स्वप्रेरणा self-motivation) से ही लगते हैं। उदाहरण के रूप में Webster के अंग्रेजी कोश तथा फादर कामिल बुल्के, डॉ.हरदेव बाहरी के अंग्रेजी-हिन्दी कोश या रामचंद्र वर्मा के "हिन्दी कोश" के नाम लिए जा सकते हैं।

         कोश निर्माण अत्यंत विस्तृत और श्रम-साध्य कार्य होता है अतः इसे सामूहिक और संस्थागत स्तर पर भी किया जाता है। सामूहिक स्तर पर एक संपादक होता है जो कोश निर्माण कार्य को योजना के रूप में पूरा करता है। यह कार्य सरकारी संस्थाओं तथा विद्या संबंधी और स्वैच्छिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है। इसके साथ ही कुछ निजी प्रकाशन भी कोश निर्माण की योग्यता के तहत कोश तैयार कराते हैं। Oxford English Dictionary, Chamber's English Dictionary, Longman's Dictionary, हिन्दी शब्दसागर, हिन्दी साहित्य कोश, Encyclopaedia of Indian Literature, हिन्दी विश्वकोश, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा तैयार किए गए विभिन्न पारिभाषिक शब्दसंग्रह आदि इसी कोटि में आते हैं।

         कोश निर्माण का कार्य एक बार हो जाने पर भी पूरा नहीं हो जाता। वास्तव में कोश निर्माण कार्य एक सतत् प्रक्रिया है जो लगातार चलती रहती है। एक बार तैयार किया गया कोश कुछ समय पश्चात् अपर्याप्त महसूस होने लगता है। कारण, भाषा एक सतत परिवर्तनशील, विकासशील जीवंत इकाई होती है। उसमें निरंतर नए शब्द बनते रहते हैं और बाहर से शब्द आते रहते हैं। इसके अलावा पुराने शब्दों के अर्थ में निरंतर घट-बढ़ होती रहती है। नई अर्थच्छायाएं (new meanings) विकसित होती रहती है।

         अत: शब्दकोशों को समय-समय पर अद्यतन (update) बनाने की जरूरत होती रहती है। उनमें नई प्रविष्टियों (entries) को शामिल करने और पुरानी प्रविष्टियों में संशोधन करने की आवश्यकता होती है।

    व्यक्तिगत स्तर पर निर्मित कोशों में यह कार्य आगे आने वाली पीढ़ियों को करना पड़ता है, जैसा कि Webster के कोश में किया गया। 1828 में निर्मित आरंभिक कोश में 1847 में परिवर्धन, संशोधन किया गया और बाद में फिर समय-समय पर किया जाता रहा। संस्थाओं द्वारा तैयार कराए गए कोशों में यह कार्य संपादक मंडल द्वारा कराया जाता है।


       

    शब्दकोश निर्माण प्रक्रिया - संक्षिप्त परिचय

              शब्दकोश निर्माण प्रक्रिया से संबंधित समस्त कार्यों को मोटे रूप में तीन चरणों में रखा जाता है- संकलन, संपादन और प्रेस कापी निर्माण/मुद्रण |


    संकलन प्रक्रिया


        संकलन प्रक्रिया में दो प्रमुख कार्य शामिल हैं-मूलभूत नीति-निर्णय (basic policy-decision) और सामग्री संकलन ।

     

    (क) मूलभूत नीति-निर्णय: शब्दकोश निर्माण कार्य शुरू करने से पहले यह निर्णय करना जरूरी होता है कि प्रस्तावित कोश का उद्देश्य तथा स्वरूप (design) क्या होगा। क्या यह कोश सामान्य कोश होगा या शिक्षार्थी कोश ? क्या यह भाषा सीखने वाले अन्य भाषा-भाषी छात्रों को ध्यान में रखकर बनाया जाएगा या मातृभाषियों को ध्यान में रखकर ? क्या यह ऐतिहासिक कोश होगा या समकालीन भाषा प्रयोग पर आधारित होगा ? कोश आकार में छोटा होगा या बृहत् ? एक भाषा कोश होगा या द्विभाषा कोश ? इसमें शब्दों (प्रविष्टियों entries) की संख्या लगभग कितनी होगी ? इसी प्रकार शब्दकोश से संबंधित अनेक नीति संबंधी निर्णय लेने पड़ते हैं।

         एक बार शब्दकोश का स्वरूप निर्धारित हो जाने के बाद आधार-साहित्य या आधार -सामग्री के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है। दूसरे शब्दों में कोश में दिए जाने वाले शब्दों (प्रविष्टियों) के स्रोत क्या होंगे ? क्या वे लिखित या मौखिक साहित्य दोनों होंगे ? कौन-कौन सी और किस काल तक की साहित्यिक तथा गैर-साहित्यिक कृतियों को शामिल किया जाएगा ? कौन -कौन सी पत्र-पत्रिकाओं, कौन-कौन से तकनीकी साहित्य और दस्तावेजों या अन्य भाषा सामग्री को विश्लेषण के लिए चुना जाएगा? आदि।

    (ख) सामग्री संकलन: प्रस्तावित आधार-सामग्री की रूपरेखा तैयार हो जाने के बाद उस सामग्री को उपलब्ध करने की कोशिश की जाती है। इसके बाद उसके आवश्यक अंशों तथा शब्दों को कार्डों में लिखा या टंकित किया जाता है। एक बार यह प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद कुछ निर्धारित मानदंडों के आधार पर उन शब्दों को चुना जाता है जिनका अर्थ-व्याख्या कोश में जरूरी समझी जाती है। ऐसे शब्दों को प्रविष्टियां (entries) या प्रविष्टि शब्द कहा जाता है। इन प्रविष्टियों के चयन का एक महत्वपूर्ण मानदंड उनकी प्रयोग-आवृत्ति (frequency of use) है।

         इसके बाद हर प्रविष्टि शब्द के प्रयोग तथा अर्थ को स्पष्ट करने के लिए आधार सामग्री से आवश्यक संदर्भ तथा दृष्टांत (examples) वाक्यों को अलग-अलग कार्डों पर लिखा या टंकित किया जाता है। इन कार्डों की संख्या लाखों में जा सकती है। कोश की परंपरा के अनुसार सभी प्रविष्टियों को अकारादि क्रम (alphabetical order) से संयोजित किया जाता है।


    संपादन प्रक्रिया


        एक बार शब्दकोश के लिए प्रविष्टियों का चयन हो जाने के बाद संपादन (editing) की प्रक्रिया शुरू होती हैं। संपादन प्रक्रिया को दो भागों में बाँटा जा सकता है-- प्रविष्टियों से संबंधित संपादन और अर्थ-व्याख्या (meaning-explanation) से संबंधित संपादन।

    (क) प्रविष्टियों से संबंधित संपादन: प्रविष्टियों के संबंध में जो सबसे पहला निर्णय कोशकार को लेना होता है वह यह कि वह उस प्रविष्टि के कितने व्युत्पन्न रूपों (derived words) को कोश में मुख्य प्रविष्टि या उप- प्रविष्टि (सब-एन्ट्री) के रूप में रखना चाहता है। उदाहरण के लिए साहस, साहसी, साहसपूर्ण, साहसिक, साहसवान, साहसयुक्त, साहसहीन आदि में से कौन-कौन से रूपों को कोश में जगह दें और कौन-से को नहीं। इसी प्रकार शब्दों से बनने वाले मुहावरों को कोश में शामिल करें या न करें, या करें तो किस सीमा तक करें।

         दूसरे, कोशकार को प्रविष्टियों तथा उप-प्रविष्टियों के संबंध में जरूरी व्याकरणिक सूचनाएँ देनी पड़ती हैं, जैसे शब्दों की संरचनात्मक कोटि (structural category) या शब्द वर्ग (संज्ञा, विशेषण, क्रियाविशेषण, क्रिया आदि) ।

          तीसरे, जहाँ जरूरी हो शब्दों के उच्चारण (pronunciation) तथा वर्तनी-रूपों (spellings) का भी संकेत दिया जाता है, जैसे occur, occurred, occurring; बहन, बहिन।

          इसी प्रकार जरूरत के अनुसार प्रविष्टियों के सामने उनके विषय क्षेत्र या प्रयोग क्षेत्र का भी संकेत दिया जाता है जैसे Math Chem. Bot. आदि।

          इसी प्रकार अंग्रेजी में slang, vulgar, colloq और हिंदी में 'ग्राम्य', 'बोलचाल', 'क्षेत्रीय' आदि संकेतक चिह्नों द्वारा शब्दों के प्रयोग मूल्यों तथा सामाजिकता के बारे में भी सूचना दी जाती है। इन्हें टैग या लेबल कहते हैं।

    (ख) अर्थ-व्याख्या से संबधित संपादन: अर्थ की व्याख्या (to explain the meaning) किसी भी कोश का प्राथमिक उद्देश्य होता है। आज यह माना जाता है कि किसी भी शब्द का अर्थ तब तक पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो सकता जब तक उसके अर्थक्षेत्र (area of use) से संबंधित अन्य शब्दों से उसकी तुलना न की जाए और उनके प्रयोग को दृष्टांत वाक्यों (example sentences) तथा संदर्भों (references) से स्पष्ट न किया जाए। अतः अर्थ के संबंध में संपादक या कोशकार को आवश्यकता के अनुसार निम्नलिखित प्रमुख कार्य करने पड़ते हैं :

    क) शब्दों के अर्थों और अर्थच्छायाओं (possible meanings) का निर्धारण, उनकी व्याख्या तथा उनके पर्यायों (synonyms and meanings) या उनकी परिभाषाओं का निर्धारण।

     

    ख) शब्दों के अर्थ-क्षेत्र में आने वाले पर्याय (synonyms), विलोम (antonyms) या संबद्ध शब्दों (related words) का यथावश्यक उल्लेख और उनकी तुलना (जैसे शोक-दु:ख-खेद, अनुकूल-प्रतिकूल, नकारात्मक-सकारात्मक, चाचा-चाची)।

    (ग) शब्दों के वास्तविक प्रयोग को स्पष्ट करने के लिए दृष्टांत वाक्यों का चयन या निर्धारण

    तथा जहाँ जरूरत हो वहाँ चित्रों या आरेखों की व्याख्या करना।

     घ) सहप्रयोगों (साथ-साथ प्रयोग में आने वाले शब्द) का निर्धारण, अर्थात् ऐसे शब्द जो हमेशा या प्रायः अपने आगे-पीछे खास तरह के शब्दों की आकांक्षा करते हैं, जैसे चिकनी-चुपड़ी (बातें), अदम्य (साहस), प्रकांड (पंडित), चिलचिलाती (धूप), to comply (with), to consist (of), profound (knowledge, sleep) आदि।


    प्रेसकापी निर्माण/मुद्रण


         शब्दकोश की प्रेसकापी तैयार करना बहुत मेहनत का काम है, क्योंकि शब्दकोश में प्रयुक्त हर संकेत-चिह्न, अक्षर का आकार, विरामदि चिह्न (punctuation marks), संक्षिप्त (abbreviations) और फॉरमेट-डिज़ाइन महत्वपूर्ण सूचना प्रकट करता है।

         प्रेसकापी निर्माण प्रक्रिया का पहला चरण है कोश की सामग्री को उस रूप में सेट करना जिस रूप में उसे पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जाना है। इनमें कोश के कलेवर (ऊपरी ढांचा design) तथा उसके पृष्ठों के फॉरमेट को अंतिम रूप देने का काम भी शामिल है।

         कोश के शब्दों, वाक्यांशों (phrases) तथा अन्य विवरणों के लिए अलग-अलग तरह के टाइप या फॉन्ट का चयन और उनके प्रयोगों में समरूपता (एक जैसा) सुनिश्चित करना दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है।

         तीसरा महत्वपूर्ण कार्य है संकेतक चिह्नों (जैसे ~ >·) आदि) संक्षिप्तियों (abbreviation) तथा विरामादि चिह्नों के प्रयोग में समरूपता सुनिश्चित करना। इसी प्रकार संपूर्ण कोश में वर्तनी (spelling) की शुद्धता और समरूपता सुनिश्चित करना प्रेसकापी निर्माण प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग है।

         चौथा कार्य है कोश के लिए आवश्यक प्रस्तावना, भूमिका, नामावली, आभार प्रदर्शन, सक्षिप्तियों की व्याख्या (to explain the abbreviations) और अन्य सहायक विवरण तैयार करना।

         पहले प्रेसकापी तैयार करने के बाद उसे मुद्रण के लिए भेजा जाता था जहाँ समस्त सामग्री को नए सिरे से कम्पोज करना होता था जिसमें उनकी जाँच तथा वर्तनी सुधार का अतिरिक्त काम भी जुड़ा रहता था। अब कंप्यूटर के डाटाबेस में समस्त कोश-सामग्री डिस्क या फ्लापी में संचित रहती है। अतः इनसे सीधे लेसर प्रिन्ट या मुद्रण किया जा सकता है। अतः कंपोजिंग तथा वर्तनी जाँच की प्रक्रिया जो मुद्रण का 70 प्रतिशत समय लेती थी, अब कंप्यूटर प्रणाली के कारण कम हो गयी।

     

    उपसंहार/निष्कर्ष 


        जब कोई भाषा, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में समृद्ध होती है तो उसमें शब्दावली संग्रह और कोश निर्माण कार्य भी सम्पन्न होता है। आधुनिक काल में भारतीय भाषाओं में यह कार्य काफी तादाद् में हुआ है। इसके अतिरिक्त, जब कोई भाषा-समाज दूसरे भाषा-भाषियों के गहन संपर्क में आता है तो अपनी जरूरतों के लिए वह द्विभाषिक शब्दकोश निर्मित करता है।

    कोश निर्माण कार्य की निरंतरता वास्तव में भाषा की समृद्धि और विस्तार की सूचक है। संपन्न और व्यापक रूप से व्यवहृत भाषाओं में कोश निर्माण कार्य लगातार चलता रहता है। कोशों को कुछ वर्ष बाद संशोधित किया जाता है। इस कार्य में पर्याप्त मानवीय श्रम अपेक्षित होता है। अब कंप्यूटर के आ जाने से कोशों के निर्माण, नवीकरण और अद्यतन बनाए जाने से काफी सुविधा हो गई है।

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