महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध कविताएं और उनकी व्याख्या | Mahadevi Verma Ki Prasiddha Kavitaen Uar Unki Vyakhya

 महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध कविताएं और उनकी व्याख्या 
Mahadevi Verma Ki Prasiddha Kavitaen Uar Unki Vyakhya 

 
महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध कविताएं और उनकी व्याख्या |  Mahadevi Verma Ki Prasiddha Kavitaen Uar Unki Vyakhya








    महादेवी वर्मा का जीवन परिचय


          महादेवी वर्मा का जन्म 1907 में फर्रुखाबाद में हुआ था। इनकी पढ़ाई-लिखाई इंदौर और इलाहाबाद में हुई थी। इलाहाबाद में स्थित प्रयाग महिला विद्यापीठ में वे प्रधानाचार्या के पद पर कार्यरत रहीं। उनकी मृत्यु 1987 में हुई।

     
         महादेवी वर्मा ने कविता के अलावा सशक्त गद्य भी लिखा था। उनकी गद्य रचनाएँ भाषा और विचार की दृष्टि से अत्यंत परिपक्व मानी जाती हैं। शृंखला की कड़ियाँ’  के लेखों में उन्होंने स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को जिस स्तर पर उठाया था वह आश्चर्यजनक है। मैनेजर पाण्डेय ने इस पुस्तक को रेखांकित करते हुए लिखा है कि सिमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ के प्रकाशन से भी पहले महादेवी की यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी और इसके लेख तो और भी पहले प्रकाशित हो चुके थे।
     महादेवी वर्मा ने ‘चाँद’ पत्रिका के ‘विदुषी अंक’ का सम्पादन 1935 में किया था। यह अंक हिंदी में हुए स्त्री-विमर्श की परम्परा में विशेष महत्व रखता है। यह अंक उस जमाने में आया था जब इस तरह के विषय पर सोच-विचार की प्रवृत्ति आम नहीं थी। महादेवी का वैचारिक गद्य लेखन महत्त्वपूर्ण है।
     
    छायावाद और रहस्यवाद की कवयित्री के रूप में महादेवी वर्मा का स्थान अक्षुण्ण है। उनके पाँच काव्य-संग्रहों की कविताओं में छायावादी-रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ तो हैं ही, उनमें स्त्री की पीड़ा और मुक्ति के प्रसंग भरे पड़े हैं। इनमें पीड़ा का विवरण भी व्यक्तित्व की दृढ़ता को व्यक्त करने के लिए किया गया है। इनमें प्रेम और प्रेमी का जिक्र भी मुक्ति के प्रतीक के रूप में किया गया है। महादेवी कोरी भावुकता की कविताएँ नहीं लिखती हैं। उनकी कविताओं में वैचारिक दृढ़ता हमेशा बनी रही।
     
    काव्य-कृतियाँ
     
    नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1935), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), हिमालय (1963) सप्तपर्णा (अनूदित 1966), प्रथम आयाम (1982) अग्निरेखा (1990)
     
    गद्य-कृतियाँ
     
    अतीत के चलचित्र (रेखाचित्र - 1941) शृंखला की कड़ियाँ (नारी-विषयक सामाजिक निबंध 1942), स्मृति की रेखाएँ (रेखाचित्र -1943) पथ के साथी (संस्मरण- 1956), क्षणदा (ललित निबंध - 1956), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (आलोचनात्मक - 1960), संकल्पिता (आलोचनात्मक-1969,) मेरा परिवार (पशु-पक्षियों के संस्मरण - (1971), चिंतन के क्षण (1986)
     
    संकलन
     
    यामा (नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत का संग्रह / 1936), संधिनी (कविता-संग्रह / 1964), स्मृतिचित्र (गद्य-संग्रह 1966), महादेवी साहित्य (भाग - 1- 1969), महादेवी साहित्य (भाग-2-1970), महादेवी साहित्य (भाग-3-1970), गीतपर्व (कविता-संग्रह 1970, स्मारिका (1971), परिक्रमा (कविता-संग्रह-1974), सम्भाषण (कविता-संग्रह -1975), मेरे प्रिय निबंध (निबंध-संग्रह 1981), आत्मिका (कविता-संग्रह-1983), नीलाम्बरा (कविता-संग्रह-1983) दीपगीत (कविता-संग्रह -1983)
     
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      चयनित कविताओं का पाठ और विश्लेषण
     
     
    एक
     

    पंथ होने दो अपरिचित

     
    पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला!
     
    घेर ले छाया अमा बन,
    आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिम ले यह घिरा घन,
     
    और होंगे नयन सूखे,
    तिल बुझे औ पलक रूखे,
    आर्द्र चितवन में यहाँ
    शत विद्युतों में दीप खेला।
     
    अन्य होंगे चरण हारे,
    और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे,
    दुखव्रती निर्माण उन्मद,
    यह अमरता नापते पद,
    बाँध देंगे अंक-संसृति
    से तिमिर में स्वर्ण बेला!
     
    दूसरी होगी कहानी,
    शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी,
    आज जिस पर प्रलय विस्मित,
    मैं लगती चल रही नित,
    मोतियों की हाट औ
    चिनगारियों का एक मेला!
     
    हास का मधु दूत भेजो,
    रोश की भरू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो!
     
    ले मिलेगा उर अचंचल
    वेदना जल, स्वप्न-शतदल,
    जान लो वह मिलन एकाकी
    विरह में है दुकेला!
     

    दीप-शिखा, 1942.


    कठिन शब्द
     
         अपरिचित -अज्ञात या अनजान प्रिय-पथ, अमा-अँधेरी रात, कज्जल-अश्रुओं - एकदम साफ आँसुओं की - तरह बारिश का पानी, तिल बुझे - जिन आँखों के काले, तारक-गोलों में निराशा भरी हो, चितवन-दृष्टि, शत विद्युतों - चमकती हुई सैकड़ों आकाशीय बिजलियों, चरण हारे - निराश होकर थक चुके कदम,  शूल काँटे – कठिनाइयाँ,  दुखव्रती (इन पैरों ने) दुःख उठाकर भी अपना काम करने का संकल्प ले रखा है, निर्माण उन्मद - जिसने निर्माण का दृढ़ संकल्प ले लिया हो,  अंक-संसृति - सृष्टि की गोद में,  स्वर्ण बेला- सुनहली सुबह, उत्साह का वातावरण,  विस्मित - आश्चर्य से भरा हुआ,  हास - जो हँसी-खुशी से भरा हुआ हो, मधु-दूत-  वसंत ऋतु, जो पराग और मादकता का सन्देशवाहक हो,  भरू-भंगिमा - भौहों के विभिन्न संचालन, उर अचंचल -  स्थिर भाव से युक्त हृदय, वेदना- जल दुःख के आँसू, स्वप्न-शतदल - कमल के फूल की तरह खिले हुए सपने,  मिलन-  एकाकी - मिलन में एकमेक होकर अपने और दूसरे के अस्तित्व को भूल जाने का भाव, दुकेला- विरह में दोनों पक्षों के अस्तित्ववान होने का भाव।
     
     
     

     
    पंथ होने दो अपरिचित
     
    (1) पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला!
     
    घेर ले छाया अमा बन,
    आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिम ले यह घिरा घन,
     
    और होंगे नयन सूखे,
    तिल बुझे औ पलक रूखे,
    आर्द्र चितवन में यहाँ
    शत विद्युतों में दीप खेला।

    सन्दर्भ और प्रसंग
     
        पंथ होने दो अपरिचितशीर्षक कविता / गीत दीप शिखा' (1942) में संगृहीत है। दीप- शिखा की कविताओं में महादेवी की वैचारिक दृढ़ता पहले की तुलना में और भी बढ़ी हुई दिखाई पड़ती है। उनका यह मत है कि चाहे जो हो जाए, हमें अपने काम और अपनी वैचारिकी पर दृढ़ होना चाहिए।
     
    व्याख्या
     
         इस कविता में महादेवी कहती हैं कि मैं जिस रास्ते पर चलना चाहती हूँ वह मेरे लिए नया हो सकता है, अपरिचित हो सकता है, उस रास्ते की कठिनाइयों का अनुमान मुझे नहीं भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि इस यात्रा में मेरी सहायता करनेवाला कोई न हो। संभव है कि मेरा सहारा केवल मेरा आत्मबल हो! तब भी कोई बात नहीं। महादेवी पूरे विश्वास के साथ कहती हैं कि पंथ को अपरिचित होने दो और मेरे प्राणों को अकेला रहने दो। मैं पीछे नहीं हटूँगी। यह रास्ता प्रिय तक पहुँचानेवाला है। यह कविता दुहरा अर्थ रखती है। एक अर्थ है स्त्री के संघर्ष से सम्बन्धित और दूसरा अर्थ है प्रिय-पथ पर चलने की कठिनाइयों से संघर्ष ।
     
         इस कविता में दो पक्ष हैं - रास्ते में आनेवाली कठिनाइयाँ और अपनी हिम्मत। महादेवी कहती हैं कि यदि मेरी छाया अमावस्या की काली रात बनकर घेर ले, घिरे हुए बादलों से ऐसे बारिश हो मानो निर्मल आँसू बरस रहे हों। फिर भी मैं हार नहीं मानूँगी। वे दूसरों की आँखें होंगी, जो विषम परिस्थितियों में दुखी होकर सूख जाती होंगी, उन आँखों के गोलक बुझ जाते होंगे, उनकी पलकें रूखी हो जाती होंगी! मेरी हिम्मत तो यह है कि डबडबाई आँखों में भी मैंने निगाहों की चमक बनाए रखी है, जैसे बरसते हुए आसमान में सैकड़ों बिजलियाँ ऐसे चमकती हैं मानो लगातार दीप जल रहे हों !
     
    (2) अन्य होंगे चरण हारे,
    और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे,
    दुखव्रती निर्माण उन्मद,
    यह अमरता नापते पद,
    बाँध देंगे अंक-संसृति
    से तिमिर में स्वर्ण बेला!
     
    व्याख्या : वे दूसरे ढंग के लोग होंगे जिनके कदम इन परेशानियों के कारण हार मान लेते होंगे। वे दूसरे ढंग के लोग होंगे जो रास्ते के काँटों को अपने संकल्प सौंप कर हारे हुए की तरह लौट जाते होंगे। मेरे पाँव अमरत्व की यात्रा कर रहे हैं। वे मृत्यु के भय से मुक्त हैं। उन्होंने दुःख को व्रत की तरह स्वीकार कर लिया है। वे निर्माण के प्रति उन्माद के स्तर तक का संकल्प ले चुके हैं। आशय यह है कि मैं हार नहीं मानूँगी। मेरे कदम सृष्टि की गोद में फैले हुए अँधेरे के बीच सुनहला सबेरा उत्पन्न कर देंगे।

    (3) दूसरी होगी कहानी,
    शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी,
    आज जिस पर प्रलय विस्मित,
    मैं लगती चल रही नित,
    मोतियों की हाट औ
    चिनगारियों का एक मेला!
     
    व्याख्या : पराजय की वह कहानी दूसरे ढंग की होगी, जहाँ संघर्ष करनेवालों की आवाज शून्य में समाकर मिट गयी होगी और उनकी प्रत्येक निशानी धूल में खो गयी होगी। मगर मेरे साथ यह सब नहीं हो सकता। मैं मोतियों की हाट और चिंगारियों का मेला लगा रही हूँ। आशय यह है कि में आँसुओं को क्रांति के रूप में ढाल देना चाहती हूँ। इसलिए आज इस हाट और मेला पर प्रलय भी विस्मित हो गया है। जो प्रलय मुझे मिटाने आया था, वह मेरी हिम्मत देखकर आश्चर्य से भर गया है।
     
    (4) हास का मधु दूत भेजो,
    रोश की भरू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो!
     
    ले मिलेगा उर अचंचल
    वेदना जल, स्वप्न-शतदल,
    जान लो वह मिलन एकाकी
    विरह में है दुकेला!
     
    व्याख्या : कविता के अंत में महादेवी मानो अपने अज्ञात और अनंत प्रियतम को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि तुम चाहे प्रसन्न रहनेवाले वसंत को दूत बनाकर मेरे पास भेजो या भौंह चढ़ाकर रोष प्रकट करनेवाले पतझड़ को! मेरा हृदय सब कुछ सह लेगा। मेरा हृदय अचंचल रहकर, अपने दुःख के आँसुओं और कमल की तरह सुंदर सपनों को लेकर तुमसे मिलेगा।
         एक बात तय है कि वह मिलन मुझे अकेला कर देगा, क्योंकि संघर्ष की जिन प्रेरणाओं ने मेरे व्यक्तित्व का निर्माण किया है उन सबकी पूर्णाहुति इस मिलन में हो जाएगी। यह मिलन मेरे-तुम्हारे द्वैत को समाप्त कर देगा।  द्वैत की समाप्ति मानो हमारे अस्तित्व-व्यक्तित्व को घुला मिला लेने के समान है। इस तरह यह मिलन मुझे एकाकी हो जाने का एहसास कराएगा, जबकि विरह की स्थिति में मुझे एहसास है कि तुम भी हो और मैं भी हूँ। मेरे लिए मिलन में एकाकी हो जाने का भाव है और विरह में दोनों के अस्तिववान होने का भाव!
     
    काव्य सौष्ठव/ विशेष
     
    ·       चाहे जो हो जाए हमें अपने काम और अपनी वैचारिकी पर दृढ़ होना चाहिए।
     
    ·       यह कविता दुहरा अर्थ रखती है। एक अर्थ है स्त्री के संघर्ष से सम्बन्धित और दूसरा अर्थ है प्रिय-पथ पर चलने की कठिनाइयों से संघर्ष।
     
    ·       इस कविता में महादेवी मानो अपने अज्ञात और अनंत प्रियतम को भी सम्बोधित कर रही हैं।
     
    ·       28 और 14 मात्राओं की पंक्तियों से इस कविता का निर्माण हुआ है ।
     
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    दो
     

    यह मन्दिर का दीप


     
    यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो।
     
    रजत शंख-घड़ियाल स्वर्ण वंशी वीणा स्वर,
    गए आरती वेला को शत-शत लय से भर,
    जब था कल कंठों का मेला,
    विहँसे उपल तिमिर था खेला,
    अब मंदिर में इष्ट अकेला,
    इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!
     
    चरणों से चिन्हित अलिंद की भूमि सुनहली,
    प्रणत शिरों के अंक लिए चन्दन की दहली,
    झरे सुमन बिखरे अक्षत सित,
    धूप-अर्घ्य नैवेद्य अपरिमित,
    तम में सब होंगे अंतर्हित
    सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!
     
    पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
    प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया
    साँसों की समाधि सा जीवन,
    मसि-सागर का पंथ गया बन
    रुका मुखर कण-कण का स्पंदन,
    इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!
     
    झंझा है दिग्भ्रांत रात की मूर्छा गहरी,
    आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
    जब तक लौटे दिन की हलचल,
    तब तक यह जागेगा प्रतिपल,
    रेखाओं में भर आभा-जल
    दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!
     
    (दीप-शिखा, 1942)
     
    कठिन शब्द
     
        नीरव जलने दो - खामोशी से अपना काम करने दो,  रजत शंख-घड़ियाल -  चाँदी के रंग के शंख और घड़ियाल (पूजा में प्रयुक्त एक वाद्य) स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर - सोने की तरह मोहक बाँसुरी और बीणा के स्वर,  आरती वेला-  देवता की आरती करने का समय,  कल कठों का मेला -सुंदर कंठ-स्वरों से गायी गई आरती का सामूहिक स्वर,  विहँसे उपल – मानो मंदिर निर्माण में प्रयुक्त पत्थर भी हँस रहे हों,  इष्ट अकेला – (मंदिर में) भगवान अकेले हैं,  अजिर का शून्य - आँगन का सूनापन, गलाने को गलने दो - (सूनेपन को) समाप्त करने के लिए (इस दीप को) जल-जल कर गलने दो, चरणों से चिह्नित - भक्तों के चरणों के निशान, अलिंद की भूमि - बाहरी दरवाजे के सामने की जगह,  मन्दिर के बाहरी द्वार के पास की जगह जहाँ श्रद्धालु जूते-चप्पल खोल देते हैं,  प्रणत शिरों के अंक- झुककर मस्तक सटाने से पड़े हुए निशान,  दहली-देहरी, चौखट, अक्षत सित-  चावल के सफेद दाने जिनका उपयोग पूजा में किया जाता है,  धूप-अर्घ्य-धूप-बत्ती  और देवता को समर्पित की जानेवाली पूजन सामग्री, नैवेद्य - देवता को समर्पित की जानेवाली भोज्य वस्तु, अर्चित कथा - पूजा-अर्चना की बातें,  पल के मनके क्षण-रूपी मनका (माला के दाने), प्रतिध्वनि का इतिहास - दिन भर मन्दिर में होने वाली ध्वनियाँ अब रात में अनुगूँज बनकर इतिहास हो गयी हैं,  प्रस्तरों – पत्थरों,  मसि-सागर – स्याही-रूपी अन्धकार का समुद्र,  झंझा - शोर करती हुई बहनेवाली वायु दिग्भ्रांत - जिसे दिशाओं का बोध न रह गया हो,  भटका हुआ,  आभा-जल - प्रकाश-रूपी नमी (को संध्या में भरते हुए दीपक), दूत साँझ का – ये  दीपक संध्या के सन्देशवाहक की तरह है,  प्रभाती - सुबह में गाया जानेवाला गीत।
     
    यह मन्दिर का दीप
     
    (1) यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो।
     
    रजत शंख-घड़ियाल स्वर्ण वंशी वीणा स्वर,
    गए आरती वेला को शत-शत लय से भर,
    जब था कल कंठों का मेला,
    विहँसे उपल तिमिर था खेला,
    अब मंदिर में इष्ट अकेला,
    इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!
     
    सन्दर्भ और प्रसंग


    यह मंदिर का दीप कविता में महादेवी वर्मा ने कहना चाहा है कि साधक को अपनी साधना करने दो! साधक प्रचार के लिए साधना नहीं करता है। वह किसी को दिखाने के लिए या प्रशंसा के लिए साधना नहीं करता है। वह अपने संकल्प को पूरा करने के लिए साधना करता है। इस कविता में मन्दिर के दीप को साधक का प्रतीक बनाया गया है।
     
    व्याख्या
     
         महादेवी वर्मा कहती हैं कि यह मंदिर का दीपक है। इसे चुपचाप जलने दिया जाए। यह दीपक एक संकल्प के साथ जल रहा है। इसका संकल्प यह है कि मंदिर का इष्ट देव अंधेरे में न रहे। वह पूरी रात जलकर अपने देवता के घर में प्रकाश बनाए रखना चाहता है।
     
         महादेवी मंदिर की दिनचर्या की चर्चा करती हुई कहती हैं कि चाँदी के रंग के शंख-घड़ियाल और सोने के रंग की वंशी-वीणा की मधुर ध्वनियों ने आरती के समय को सैकड़ों लयों से भर दिया था। उस समय सुंदर कंठ-ध्वनियों का मानो मेला लगा हुआ था। इन सबके प्रभाव से मानो मंदिर की दीवारों में लगे पत्थर भी विहँस पड़े थे। मंदिर के अँधेरे कोने भी मानो खेलने लगे थे। मगर रात होते ही सब लोग चले गए, मंदिर का दरवाजा बंद कर दिया गया। अब मंदिर के इष्ट देवता नितांत अकेले रह गए हैं। मंदिर का आँगन सूना-सूना लग रहा है। महादेवी कहती हैं कि मंदिर के इस सूनेपन को दूर करने के लिए इस दीपक को जल- जलकर गलने दो! यदि यह दीपक नहीं जलेगा तो यह सूनापन दूर नहीं हो सकेगा।
     
    (2) चरणों से चिन्हित अलिंद की भूमि सुनहली,
    प्रणत शिरों के अंक लिए चन्दन की दहली,
    झरे सुमन बिखरे अक्षत सित,
    धूप-अर्घ्य नैवेद्य अपरिमित,
    तम में सब होंगे अंतर्हित
    सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!
     
    व्याख्या : कवयित्री पुनः मंदिर की दिनचर्या का जिक्र करते हुए कहती हैं कि दिन भर में न जाने कितने श्रद्धालु मन्दिर में आए। उनके कदमों के निशान से अलिंद की भूमि भर गयी और सुनहली लगने लगी। श्रद्धालुओं के मस्तक झुकाकर स्पर्श करने से चंदन का चौखट निशानों से भर गया है। दिन भर मन्दिर में फूल झरते रहे और अक्षत बिखरते रहे। पूजा-पाठ और भोग चढ़ायी जानेवाली असंख्य वस्तुओं से मंदिर भरा पड़ा था। मगर रात होते ही ये सारी चीजें अँधेरे में डूब जाएँगी। दिन भर में जितने लोगों ने पूजा-अर्चना की है उन सबकी पूजा की कथा इस दीपक की लौ में पलने दो। यदि यह दीपक नहीं जलेगा तो सबकी अर्चित-कथा मानो अँधेरे में डूब जाएगी।
     
    (3) पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,
    प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों बीच खो गया
    साँसों की समाधि सा जीवन,
    मसि-सागर का पंथ गया बन
    रुका मुखर कण-कण का स्पंदन,
    इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!
     
    व्याख्या : एक-एक क्षण मानो माला के दाने की तरह बढ़ता गया और रात आ गयी। विश्व-रूपी पुजारी इन दानों को, जाप करते हुए बढ़ाता गया और अंत में थक कर सो गया। मंदिर में ध्वनियों की गूँज-अनुगूँज मौजूद रहती है। रात होने पर इन सबका ब्यौरा मानो पत्थर की दीवारों में खो गया। चारों तरफ ऐसा सन्नाटा था कि सोये हुए लोगों की साँसों का आना-जाना भर सुनायी पड़ रहा था। ऐसा लग रहा था मानो जीवन साँसों की समाधि बन गया हो! चारों तरफ अँधेरा ऐसे फैला मानो स्याही का समुद्र फैला हो और उस तक जाने के रास्ते बिखरे हों। रात में सब कुछ इतना खामोश हो गया था मानो कण-कण की गतिशीलता और मुखरता स्थगित हो गयी हो। दीपक की ज्वाला में इन सब खोयी हुई चीजों को अपना रूप प्राप्त कर लेने दो और उन सबमें प्राण तत्त्व का संचार हो जाने दो! अगर दीपक नहीं होगा तो ये सारी चीजें अँधेरे में डूब जाएँगी।
     
    (4) झंझा है दिग्भ्रांत रात की मूर्छा गहरी,
    आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी,
    जब तक लौटे दिन की हलचल,
    तब तक यह जागेगा प्रतिपल,
    रेखाओं में भर आभा-जल
    दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!
     
    व्याख्या : रात हो गयी है। शोर करती हुई वायु प्रवाहित हो रही है। वह ऐसे बह रही है मानो दिशा भूल गयी हो! कभी इधर से कभी उधर से! रात ऐसे सो गयी है मानो गहरी बेहोशी में हो। मेरी इच्छा है कि आज यह दीपक पुजारी बन जाए, वह प्रकाश का एक छोटा-सा प्रहरी है। जब तक दिन की हलचल लौट आए तब तक के लिए यह साधक दीपक जागता रहेगा। यह रात की प्रत्येक अँधेरी रेखा में रोशनी की सजलता को भर देगा। यह दीपक शाम के दूत की तरह है। इसे प्रभाती गाए जाने तक जलने दो!
     
    काव्य सौष्ठव/ विशेष
     
    ·       साधक किसी को दिखाने के लिए या प्रशंसा के लिए साधना नहीं करता है। वह अपने संकल्प को पूरा करने के लिए साधना करता है।
    ·       इस कविता में मन्दिर के दीप को साधक का प्रतीक बनाया गया है।
    ·       24 और 16 मात्राओं की पंक्तियों से इस कविता का निर्माण हुआ है।
     
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    तीन
     

    मैं नीर भरी दुःख की बदली

     
    में नीर भरी दु:ख की बदली!
     
    स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
    क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
    नयनों में दीपक से जलते
    पलकों में निर्झरिणी मचली!
     
    मेरा पग पग संगीत भरा,
    श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,
    नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
    छाया में मलय-बयार पली !
     
    मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर भूमिल,
    चिंता का भार बनी अविरल,
    रज-कण पर जल-कण हो बरसी
    नवजीवन-अंकुर बन निकली!
     
    पथ को न मलिन करता आना,
    पद-चिह्न न दे जाता जाना,
    सुधि मेरे आगम की जग में
    सुख की सिहरन हो अंत खिली
     
    विस्तृत नभ का कोई कोना,
    मेरा न कभी अपना होना,
    परिचय इतना इतिहास यही
    उमड़ी कल थी मिट आज चली !
     
    सांध्य गीत, 1936.

    कठिन शब्द
     
        नीर भरी - पानी या आँसू से भरी हुई, दु:ख की बदली - दुःख से निर्मित बादलों की तरह, स्पंदन - सूक्ष्म गतिमयता, सिहरन के स्तर की गति, चिर-निस्पंद -  स्थायी रूप से गतिहीनता,  आहत विश्व - दुखी संसार, स्वप्न-पराग- सपनों की तरह सुंदर परागकण,  दुकूल- दुपट्टा,  छाया में - छत्रच्छाया में, प्रभाव में,  मलय-बयार - सुगंधित वायु, क्षितिज भृकुटि-  क्षितिज मानो उस बदली की भृकुटी के समान है, धूमिल - धुएँ के रंग का, नवजीवन-अंकुर-नए जीवन के प्रतीक अंकुर के रूप में,  सुधि- याद, स्मृति,  आगम – जन्म, आना,  विस्तृत नभ - विशाल आकाश-रूपी संसार,  कोई कोना - कोई भी हिस्सा,  इतिहास – जीवन-वृत्त,  उमड़ी कल थी – जन्म हुआ था, मिट आज चली - मृत्यु हो गयी।
     
     
     
     
    मैं नीर भरी दुःख की बदली
     
    (1) में नीर भरी दु:ख की बदली!
     
    स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
    क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
    नयनों में दीपक से जलते
    पलकों में निर्झरिणी मचली!
     
     
     
    सन्दर्भ और प्रसंग
     
        महादेवी वर्मा की यह एक प्रसिद्ध कविता है। यह सांध्य-गीत’ (1936) काव्य-संग्रह में संगृहीत है । महादेवी वर्मा ने इस कविता में स्त्री के जीवन की तुलना बदली (बादल) से की है। यह कविता बदली के रूपक में स्त्री-जीवन की परेशानियों और विशिष्टताओं को व्यक्त करती है। इस कविता में केवल दुःख ही नहीं है बल्कि स्त्री-जीवन की कुछ विशिष्टताओं को भी व्यक्त किया गया है।
     
    व्याख्या
     
         महादेवी कहती हैं कि मैं आँसुओं से भरी हुई दुःख की बदली के समान हूँ। यहाँ मैं का अर्थ केवल कवयित्री से नहीं है, बल्कि स्त्री-समाज और उसके जीवन से है। महादेवी बदली के रूपक के माध्यम से बताना चाहती हैं कि स्त्री के जीवन में कितना दुःख है और स्त्री का जीवन किस तरह कुछ विशेषताओं से बना हुआ है। इस कविता में समानांतर रूप से बदली का अर्थ और स्त्री का अर्थ मौजूद है।
     
         बदली स्पन्दित होती है। उसके स्पंदन में न जाने कितने समय का निस्पंदन मौजूद होता है। बदली जब क्रंदन (गड़गड़ाहट और बारिश के द्वारा) करती है तो पानी की प्रतीक्षा में दुखी संसार खुशी से हँस पड़ता है। बदली की आँखों में बिजली चमकती है, मानो दीपक जल उठते हैं।  उसकी पलकों में निर्झरिणी मचल उठती है और बारिश होने लगती है। इस रूपक को स्त्री-जीवन के सन्दर्भ में समझें तो कह सकते हैं कि स्त्री की सिहरन तक में न जाने कितनी खामोशियों की अभिव्यक्ति होती है। उसके दुःख का उपहास इस स्तर-तक किया गया है कि जब वह रोती है तब शाश्वत रूप से दुखी इस संसार को भी खुशी मिलती है। स्त्री की आँखों में उम्मीद की चमक हमेशा बनी रही और उन्हीं आँखों से वह रोती भी रही।
     
    (2) मेरा पग पग संगीत भरा,
    श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,
    नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
    छाया में मलय-बयार पली !
     
    व्याख्या : बदली का पग-पग संगीत से भरा है। जब वह चलती है तब अपने राग में संगीतमय ध्वनि करती हुई चलती है। बदली के छा जाने पर साँसों की तरह जो हवा चलती है उसके प्रभाव से न जाने कितने सुगन्धित सपनों का जन्म होता है। बदली कहती है कि आकाश अपने नए-नए रंगों से मेरे लिए दुपट्टे का निर्माण करता है। मेरी छाया में चलनेवाली हवा मलय-बयार की तरह सुहानी होती है। रूपक का अर्थ इस तरह खुलता है कि स्त्री को प्रकृति ने अपेक्षाकृत ज्यादा कलात्मकता के साथ बनाया है । उसके चलने तक में प्रकृति ने एक तरह की लयात्मकता दी है। चाहे जितना भी दुःख रहा हो, स्त्री की साँसों में सपने जरूर पलते रहे। रंगों की शोभा उस पर ही खिल पाई और उसकी छाया में न जाने कितने सपनों को पलने का मोका मिला। स्त्री की इस भूमिका को ठीक समझने के लिए पुरुष से उसके रिश्ते को ध्यान में रखना प्रासंगिक होगा। पुरुषों ने कला के विभिन्न माध्यमों में स्त्री का जो व्यक्तित्व गढ़ा है उनसे भी इन बातों की पुष्टि होती है। कलात्मक रचनाओं में बताया गया कि स्त्री सपनों को जन्म देती है, उसका साहचर्य सुगंध से भरा होता है, उसकी सुंदरता पर पुरुष न्योछावर हो जाता है आदि ।

    (3) मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर भूमिल,
    चिंता का भार बनी अविरल,
    रज-कण पर जल-कण हो बरसी
    नवजीवन-अंकुर बन निकली!
     
    व्याख्या : धुएँ की तरह बदली जब क्षितिज पर छा जाती है, तब मौसम के बिगड़ने की चिंता प्रकट की जाने लगती है। मैं धूलकणों पर जल बनकर बरसती हूँ। मेरे बरस जाने से नए जीवन को अंकुरित होने का अवसर प्राप्त होता है। स्त्री के होने की सम्भावना से ही चिंता प्रकट की जाने लगती है। मगर मनुष्य की सृष्टि को नवजीवन प्रदान करने में उसकी भूमिका सबसे बड़ी है।
     
    (4) पथ को न मलिन करता आना,
    पद-चिह्न न दे जाता जाना,
    सुधि मेरे आगम की जग में
    सुख की सिहरन हो अंत खिली
     
    व्याख्या : बदली छाती है, आकाश में चलती है और बरस जाती है। मगर वह अपने रास्ते को कभी भी मलिन नहीं करती है। उसके चले जाने के बाद आकाश-मार्ग एकदम साफ-सुथरा नजर आता है। अपने पद-चिह्नों को छोड़ते जाने का अहंकार भी उसमें नहीं है। लेकिन यह सच है कि मेरे आने की स्मृति संसार को सुख की सिहरन से भर देती है। स्त्री संसार में आती है,  मगर उसकी भूमिका कहीं दर्ज नहीं की जाती है। पुरुषों के नाम और काम याद रखे जाते हैं। लेकिन स्त्री के आगमन को जब-जब याद किया गया, एक सुखद रोमांच की अनुभूति हुई।
     
     
    (5) विस्तृत नभ का कोई कोना,
    मेरा न कभी अपना होना,
    परिचय इतना इतिहास यही
    उमड़ी कल थी मिट आज चली !
     
    व्याख्या : इस विस्तृत आकाश का कोई कोना बदली के नाम दर्ज नहीं हो सका। उसका परिचय और इतिहास बस इतना ही रहा कि कल वह उमड़ी थी और आज मिट गयी। स्त्री अधिकार-विहीन रही। इस विस्तृत संसार में वह अनेक अधिकारों से वंचित रही। जिन अधिकारों को प्राप्त कर पुरुष अपने को इतिहास में बनाए रख सका, उन अधिकारों से वंचित रहने के कारण स्त्री के हिस्से अमरता नहीं आयी। वह मौजूद तो रही, मगर दर्ज न हो सकी। उसका परिचय इतना ही रहा कि वह किसी पुरुष के नाम से पहचानी गयी। उसके बारे में बस इतना ही सच रहा कि उसका जन्म हुआ था और फिर उसकी मृत्यु हो गयी। उसके जीवन की भूमिका अलिखित रह गयी।
     
         इस तरह महादेवी वर्मा ने इस कविता में बदली के रूपक से स्त्री-जीवन के दुःख को व्यक्त किया है। समाज के द्वारा जो उपेक्षा मिली है उसका भाव-प्रवण चित्रण इस कविता की विशेषता है। महादेवी इसमें केवल दुःख का बयान करके रुक नहीं जाती हैं, बल्कि वे स्त्री की सकारात्मक भूमिका को भी बताती चलती हैं।
     
    काव्य सौष्ठव / विशेष
     
    ·       यह कविता बदली के रूपक में स्त्री-जीवन की परेशानियों और विशिष्टताओं को व्यक्त करती है। इस कविता में केवल दुःख ही नहीं है बल्कि स्त्री-जीवन की कुछ विशिष्टताओं को भी व्यक्त किया गया है।
     
    ·       महादेवी की इस कविता को बहुत प्रसिद्धि मिली। इसे उनकी प्रतिनिधि कविता के तौर पर पहचाना गया।
     
    ·       पूरी कविता में 16-16 मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग हुआ है।


    ******
     
    चार
     

    चिर सजग आँखें उनींदी


    चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
    जाग तुझको दूर जाना!
     
    अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
    या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले
     
    आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
    जागकर विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
     
    पर तुझे है नाश-पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
    जाग तुझको दूर जाना!
    बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
    पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले ?
     
    विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
    क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले ?
     
    तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
    जाग तुझको दूर जाना!
    वज्र का उर एक छोटे अश्रु-कण में धो गलाया,
    दे किसे जीवन सुधा दो घूँट मंदिरा माँग लाया?
     
    सो गई आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
    विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया?
     
    अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
    जाग तुझको दूर जाना!
     
    कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
    आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी,
     
    हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
    राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
     
    हे तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना।
    जाग तुझको दूर जाना!

    सांध्य गीत, 1936
     
     
     
    कठिन शब्द
     
        चिर सजग आँखें-सदा सजग रहनेवाली दृष्टि,  उनींदी - नींद के आलस्य में होना,  व्यवस्त बाना - अव्यवस्थित वेश-भूषा, जाग – जागृत हो जाओ, सचेत हो जाओ, अचल हिमगिरि – अटल भाव से खड़ा हिमालय पर्वत,  प्रलय के आँसुओं में- प्रलयकाल में होने वाली भीषण बारिश, मौन अलसित व्योम – मानो दु:ख के कारण आकाश मौन और शिथिल हो गया हो, तिमिर की घोर छाया – घना अंधकार, नाश-पथ -  मृत्यु के पथ पर, मोम के बंधन सजीले -  आकर्षक मगर मिथ्या चीजों से जुड़ाव, पंथ की बाधा -रास्ते की रुकावट, तितलियों के पर रँगीले-  झूठे आकर्षण की तरह तितलियों के रँगीले पंख,  विश्व का क्रंदन – संसार का दु:ख, मधुप की मधुर गुनगुन – भौरों का मीठा गुंजार, अपनी छाँह – अपनी कमियों के प्रति आकर्षित होना, कारा – जेल, बंधन, वज्र का उर – वज्र की तरह ताकतवर हृदय, उपधान – तकिया, अमरता-सुत – अमरत्व की दार्शनिकता से युक्त पूर्वजों की संतान। अंगार-शय्या – अंगारों से बनी सेज, संघर्ष के कठिन रास्ते, मृदुल कलियाँ बिछाना – कठिनाई में कोमलता को बनाए रखना । 
     
    चार
     
    चिर सजग आँखें उनींदी

    (1) चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
    जाग तुझको दूर जाना!
     
    अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
    या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले
     
    आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
    जागकर विद्युत-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
     
    पर तुझे है नाश-पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
    जाग तुझको दूर जाना!
     
     
    सन्दर्भ और प्रसंग

        चिर सजग आँखें उनींदी शीर्षक कविता महादेवी वर्मा की उद्बोधनात्मक कविता है। यह सांध्य-गीत’ (1936) में संगृहीत है। इस कविता में महादेवी कहती हैं कि आज तुम शिथिल क्यों हो? तुम्हारी आँखें हमेशा जागरूक रही हैं। अच्छा यही है कि तुम जाग जाओ! अब समय आ गया है कि चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति आए तुम्हें अडिग रहना है।
     
    व्याख्या
     
    चिर सजग आँखें उनींदी शीर्षक कविता में महादेवी वर्मा उद्बोधित करती हुई कहती हैं कि तुम्हारी चिर सजग आँखें आज नींद की खुमारी से भरी हुई क्यों हैं? आज तुम्हारा व्यक्तित्व अस्त-व्यस्त क्यों है? तुम जागृत अवस्था में रहने का अभ्यास करो। क्योंकि तुम्हें लंबी दूरी तय करनी है। महादेवी उन लोगों को संबोधित कर रही हैं जिनमें संघर्ष की इच्छा और क्षमता है। वे उन्हें सचेत कर रही हैं कि आलस्य में मत पड़ो! कविता की अगली पंक्तियों में कठिनाइयों का जिक्र किया गया है और कहा गया है कि चाहे जैसी भी कठिनाई आए तुम्हें संघर्ष से पीछे नहीं हटना है।
     
         कठिनाइयों की चर्चा करते हुए वे कुछ रूपक गढ़ती हैं । अचल रहनेवाले हिमालय पर्वत के हृदय में आज चाहे कंपन क्यों न उत्पन्न हो जाए। यह आकाश चुपचाप ठहरकर भले ही प्रलयकाल की तरह लगातार बरसता रहे। आज भले ही प्रकाश को अन्धकार पी जाए और चारों तरफ केवल डोलती छायाएं दिखाई पडें! आज भले ही आकाश की बिजलियों में निष्ठुर तूफान अट्टहास कर उठे। इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद तुम्हें संघर्ष को छोड़ना नहीं होगा। इस नाश पथ पर अपने निशान छोड़ते हुए तुम्हें आगे बढ़ना होगा! यह सब करने के लिए जरूरी है कि तुम्हें जागरूक होना पड़ेगा!
     
    (2) बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
    पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले ?
     
    विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
    क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले ?
     
    तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
    जाग तुझको दूर जाना!
     
    व्याख्या : अगली पंक्तियों में महादेवी कहती हैं कि तुम्हारे संघर्ष को कमजोर करने के लिए कुछ मनमोहक चीजें भी रास्ते में मिलेंगी। इन आकर्षणों से बचे बगैर तुम संघर्ष नहीं कर सकते। अगर तुम सचमुच साधक हो तो ये आकर्षण तुम्हें भटका नहीं पाएँगे। उदाहरण देते हुए वे पुनः रूपकों का सहारा लेती हैं । ये मोम के सजीले बंधन हैं, क्या ये तुम्हें अपने में बाँध लेंगे? ये तितलियों के रँगीले पंख हैं, क्या ये तुम्हारे रास्ते की बाधा बनेंगे? यह विश्व दुखी है, इसके क्रंदन को भौरों की मधुर गुनगुन की ओट में भुलाया जा सकता है क्या? फूलों की पंखुड़ियों पर ओस की बूंदें बहुत सुंदर लगती हैं, मगर इस सुंदरता में संसार के दुःख को भुलाया जा सकता है क्या? तुम अपनी ही छाया की सुंदरता में कैद मत हो जाना, क्योंकि यह छाया एक भ्रम है तुम्हें सच को पहचानना है!
     
    (3) वज्र का उर एक छोटे अश्रु-कण में धो गलाया,
    दे किसे जीवन सुधा दो घूँट मंदिरा माँग लाया?
     
    सो गई आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
    विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया?
     
    अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
    जाग तुझको दूर जाना!
     
    व्याख्या : तुम्हारा हृदय मजबूत है उसकी दृढ़ता वज्र की तरह है। मगर भावुकता के आँसुओं में तुमने अपने मजबूत मन को कमजोर बना लिया है। तुमने न जाने किसे अपना जीवन- अमृत सौंप दिया है। अपने जीवन की अमरता के बदले तुमने मदिरा के कुछ घूँट प्राप्त कर लिए हैं। तुम तो आँधी की तरह प्रचण्ड थे मगर आज लगता है कि वसंती हवा के सहारे तुमने सो जाने का निर्णय ले लिया है। ऐसा लगता है कि संसार के संघर्षों से घबरा कर तुमने गहरी नींद में सो जाने का निर्णय ले लिया है। तुम अमर पूर्वजों की संतान हो ! तुम मृत्यु को अपने मन में क्यों बसा लेना चाहते हो। तुम जागृति की ओर देखो तुम्हें लम्बी दूरी तय करनी है।
     
    (4) कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
    आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी,
     
    हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
    राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
     
    हे तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना।
    जाग तुझको दूर जाना!
     
    व्याख्या : संघर्ष के इतिहास से प्रेरणा मिलती है। ताप से भरी हुई उस कहानी को भूलने की जरूरत नहीं। तुम ठण्डी सांस लेकर यह न कहो कि अब मैं संघर्ष की बातों को याद करना नहीं चाहता। याद रखना चाहिए कि जब हमारी चेतना में संघर्ष की बेचैनी होती है तभी जीवन की कोमलता की सार्थकता होती है। हृदय में आग हो, तभी आँखों में आँसुओं की सुंदरता भाती है। हो सकता है कि संघर्ष करते हुए तुझे हार का सामना करना पड़े। इससे घबराने की जरूरत नहीं है। अपने मान-सम्मान के लिए संघर्ष करते हुए मिली हुई हार को भी, जय की पताका समझना चाहिए । पतंग तो क्षण भर में राख हो जाता है, मगर दीपक में उसके संघर्ष की निशानी बनी रहती है। इतना याद रखना कि यह रास्ता आसान नहीं होता है। अंगारों की सेज पर कोमल कलियों को बिछाने का अर्थ है कलियों की शहादत! तुम्हें अपने अमूल्य को त्यागने के लिए तैयार होना पड़ेगा। इन सबका यही उपाय है कि तुम जागृति की चेतना से लैश रहो।
     
    काव्य सौष्ठव / विशेष
    ·       यह कविता उन लोगों को संबोधित है जिनमें संघर्ष की इच्छा और क्षमता है। उन्हें सचेत किया गया है कि आलस्य में मत पड़ो!
    ·       तुम्हारे संघर्ष को कमजोर करने के लिए कुछ मनमोहक चीजें भी रास्ते में मिलेंगी। इन आकर्षणों से बचे बगैर तुम संघर्ष नहीं कर सकते।
     
    ·       इस कविता का यह टुकड़ा प्रसिद्ध हुआ – तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना! जाग तुझको दूर जाना!
    ·       पूरी कविता में 28-28 मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग हुआ है। टेक की पंक्ति जाग तुझको दूर जाना में 14 मात्राएं हैं।
     
    ******
     
    पाँच

     
    सब बुझे दीपक जला लूँ


    सब बुझे दीपक जला लूँ
    घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ !
     
    क्षितिज-कारा तोड़ कर अब
    गा उठी उन्मत्त आँधी,
    अब घटाओं में न रुकती
    लास-तन्मय तड़ित बाँधी,
    धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ!
     
    भीत तारक मूँदते दृग
     
    भ्रांत मारुत पथ न पाता,
    छोड़ उल्का अंक नभ में
    ध्वंस आता हरहराता,
    उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ!
     
    लय बनी मृदु वर्तिका
    हर स्वर जला बन लौ सजीली,
    फैलती आलोक-सी
    झंकार मेरी स्नेह गीली,
    इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ!
     
    देखकर कोमल व्यथा को
    आँसुओं के सजल रथ में,
    मोम-सी साधें बिछा दीं
    थीं इसी अंगार-पथ में
    स्वर्ण हैं वे मत कहो अब क्षार में उनको सुला लूँ!
     
    अब तरी पतवार ला कर
    तुम दिखा मत पार देना,
    आज गर्जन में मुझे बस एक बार पुकार लेना!
    ज्वार को तरणी बना मैं, इस प्रलय का पार पा लूँ!
    आज दीपक राग गा लूँ!
     
    (दीप शिखा, 1942)
     
    कठिन शब्द
     
        दीपक-रागिनी - दीपक राग  - कहते हैं कि इस राग या रागिनी को सिद्धिपूर्वक गाने से दीपक जल उठते हैं, क्रांति की चेतना,  क्षितिज-कारा क्षितिज मानो कारागार की तरह है, लास-तन्मय - अपने लास्य-भाव में तन्मय, जो अपनी धुन में मग्न हो, वीण-वीणा, भीत तारक-  भयमीत सितारे, टिमटिमाते तारे मानो डरे हुए हैं, भ्रांत मारुत - दिशा भूली हुई हवा, दिग्भ्रमित लोग, मृदु वर्तिका -  कोमल बाती, मरण के पर्व - मृत्यु जब त्योहार की तरह लगने लगे,  तरी पतवार - छोटी नाव और चप्पू, ज्वार को तरणी बना - ऊँची लहरों को नौका बना लेना, प्रतिकूल को अनुकूल बना लेना।
     
    पाँच

     
    सब बुझे दीपक जला लूँ

    (1) सब बुझे दीपक जला लूँ
    घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ !
     
    क्षितिज-कारा तोड़ कर अब
    गा उठी उन्मत्त आँधी,
    अब घटाओं में न रुकती
    लास-तन्मय तड़ित बाँधी,
    धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ!
     
    सन्दर्भ और प्रसंग

         सब बुझे दीपक जला लूँ शीर्षक कविता / गीत दीप-शिखा (1942) में संकलित है। इस कविता में महादेवी ने विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करने की इच्छा-शक्ति के बारे में बताया है। रोमानी तरीके से लिखी गई यह कविता बताती है कि संघर्ष के लिए मन की मजबूती बहुत जरूरी है। कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह कविता प्रेरक है।

    व्याख्या :   महादेवी इस कविता में बता रही हैं कि परिस्थितियां क्रमश: विपरीत होती जा रही हैं। ऐसे समय में जरूरी हो गया है कि मैं अपनी हर तरह की साधना को सजग कर लूँ! अपनी हर तरह की ऊर्जा को जागृत कर लूँ! वे प्रतीकों के माध्यम  से कहती हैं कि अपने बुझे हुए सभी दीपकों को आज मैं जला लूँ! आज जब चारों तरफ अँधेरा छा रहा है तब मैं दीपक राग का गायन करूँ ताकि बुझे हुए दीपक जाग जाएँ!
     
         परिस्थितियाँ इतनी विपरीत हैं कि आँधियों ने दिशाओं की सीमाओं को तोड़ डाला है। आँधियाँ ऐसे चल रही हैं मानो ये पागल हो गयी हैं । बादलों की सीमाओं में बिजलियाँ नहीं समा रही हैं। ये विद्युत-शिखाएँ जब लपकती हैं तो लगता है मानो वे लास्य-भाव से भरकर तन्मयता के साथ नृत्य कर रही हैं। उड़ती हुई धूलि को मैं वीणा बना लेना चाहती हूँ और चाहती हूँ कि घास के हर तिनके को इस वीणा के तार के रूप में सज़ा लूँ!
     
    (2) भीत तारक मूँदते दृग
    भ्रांत मारुत पथ न पाता,
    छोड़ उल्का अंक नभ में
    ध्वंस आता हरहराता,
    उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ!
     
    लय बनी मृदु वर्तिका
    हर स्वर जला बन लौ सजीली,
    फैलती आलोक-सी
    झंकार मेरी स्नेह गीली,
    इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ!
     
    व्याख्या : तारे मानो भयभीत होकर आँखे बंद कर ले रहे हैं। हवाएं ऐसे चल रही हैं मानो दिशा भूल कर भटक गयी हों! उल्काएं आकाश की गोद को छोड़कर ऐसे गिरी आ रही हैं मानो साक्षात विध्वंस शोर मचाता हुआ चला आ रहा हो। इन विषम परिस्थितियों में मैं अपनी ऊँगलियों की ओट से अपने सुकुमार सपनों को बचा लेना चाहती हूँ। महादेवी रोमानियत से भरी हुई लड़ाई को इस कविता में रूप दे रही हैं।
         जो कोमल वर्तिका थी, उसने दीपक-राग के प्रत्येक स्वर को जला कर साध लिया है। अब वह लय से जलती हुई सजी-धजी-सी दिख रही है! मेरी करुणा से भरी हुई प्रत्येक पुकार ऐसे फैल रही है, जैसे प्रकाश फैलता है। ध्वनि और प्रकाश का विकट प्रसार मेरी आँखों के सामने हो रहा है। यह मरण का पर्व है जब हर चीज जल रही है और चारों तरफ करुण वातावरण है। ऐसे में मैं इस मरण पर्व को दीपावली की तरह बना लेना चाहती हूँ।
     
    (3) देखकर कोमल व्यथा को
    आँसुओं के सजल रथ में,
    मोम-सी साधें बिछा दीं
    थीं इसी अंगार-पथ में
    स्वर्ण हैं वे मत कहो अब क्षार में उनको सुला लूँ!
     
    व्याख्या : मैंने कोमल व्यथा को आँसुओं के सजल रथ पर आते देखा था। उसे आते देखकर उसके स्वागत में मैंने अपने सपनों को मोम की तरह कोमल बनाकर उस रास्ते पर बिछा दिया था। यह अलग बात है कि वह रास्ता अंगारों से भरा था। मुझे मत बताओ कि मेरे सपने स्वर्ण-निर्मित हैं। परिस्थितियाँ इतनी विपरीत हैं कि इन स्वर्ण-निर्मित सपनों को मुझे धूल में सुला लेने दो!
     
    (4) अब तरी पतवार ला कर
    तुम दिखा मत पार देना,
    आज गर्जन में मुझे बस एक बार पुकार लेना!
    ज्वार को तरणी बना मैं, इस प्रलय का पार पा लूँ!
    आज दीपक राग गा लूँ!

    व्याख्या : इन कठिनाइयों के बीच मेरी मदद करने के क्रम में तुम ऐसा कभी मत करना कि मेरे लिए एक छोटी सी नाव और पतवार लेकर चले आओ! यह भी मत करना कि मुझे किनारा दिखाओ! इस गर्जन-तर्जन से भरे माहौल में बस इतना करना कि मुझे एक बार पुकार लेना! मैं ज्वार की तरह उठती इन लहरों को ही नौका बना लूँगी और प्रलय को पार कर लूँगी ! आज मुझे दीपक-राग गा लेने दो! मैं चाहती हूँ कि मेरे संघर्ष के प्रत्येक दीपक की लौ जल उठे!
     
    काव्य सौष्ठव / विशेष
    ·       इस कविता में विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष करने की इच्छा-शक्ति के बारे में बताया गया है।
    ·       यह कविता रोमानी तरीके से लिखी गई है।
    ·       संघर्ष के लिए मन की मजबूती बहुत जरूरी है।
    ·       कोमल भावों के सहारे कठोर संघर्ष की राह दिखानेवाली यह कविता प्रेरक है।
    ·       पूरी कविता में 28-28 मात्राओं की पंक्तियों का उपयोग हुआ है। टेक की पंक्ति सब बुझे दीपक जला लूँ तथा आज दीपक राग गा लूँ में 14 मात्राएँ हैं।
     
     
    सारांश/निष्कर्ष : 
     
    यहाँ हमने छायावादी चतुष्टय की महत्वपूर्ण कवयित्री महादेवी वर्मा की पाँच कविताओं का अध्ययन किया है। इन कविताओं के मूल प्रतिपाद्य को सारांश के रूप में क्रमश: इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।
     
    ·       पंथ होने दो अपरिचित कविता में महादेवी प्रेरित कर रही हैं कि अपार दुःख में भी संघर्ष की इच्छा-शक्ति को नहीं छोड़ना चाहिए। विपरीत परिस्थितियों में भी कोशिश बंद नहीं करनी चाहिए।
     
    ·       यह मंदिर का दीप कविता में कहती हैं कि अपने काम को संकल्प की भावना के साथ करना चाहिए। प्रचार या प्रशंसा के लिए किया गया काम साधना की कोटि का नहीं होता है। साधकों के कारण ही यह दुनिया संकल्प पूरे कर पाती है।
     
    ·       मैं नीर भरी दुःख की बदली कविता में महादेवी वर्मा ने इस कविता में दो प्रकार का संदेश दिया है। एक यह कि स्त्री का जीवन दुःख से भरा हुआ है। दूसरा संदेश यह है कि उसका होना ही जीवन की सुंदरता को रचता है। अंत में यह भी कहा गया है कि परम्परा से स्त्री की बहुत उपेक्षा हुई है।

     ‘मैं नीर भरी दुख की बदली कविता में महादेवी वर्मा ने कहा है कि स्त्री का जीवन दुःख से भरा हुआ तो हैमगर उसमें जीवन की सुंदरता और सम्भावना भी भरी हुई है। प्रकृति ने उसे संगीत और रंगों से भरपूर सजाया हैउसमें सृष्टि को आगे बढ़ाने की शक्ति दी है। यहीं यह बात भी सही है कि संसार ने उसे अधिकार-विहीन बनाया है। उसकी भूमिका को अलक्षित और अनुल्लिखित बनाने की पूरी कोशिश की गयी है।
     
    ·       चिर सजग आँखें उनींदी कविता के माध्यम से महादेवी यह कहती हैं कि अपनी सजग चेतना को मंद मत होने देना। तुम्हारे रास्ते में न जाने कितनी तरह की बाधाएँ आएँगी। कुछ बाधाएँ सुंदर मोहक रूप धारण करके आएँगी। इन सबको पहचानते हुए तुम्हें संघर्षरत रहना पड़ेगा।
     ‘चिर सजग आँखें उनींदी कविता में महादेवी वर्मा ने प्रेरित करते हुए कहा है कि जाग्रत और सचेत रहो! किसी तरह के भ्रम में मत जिओ! किसी प्रलोभन में मत पड़ो! अपने प्रति किसी तरह की मोहासक्ति मत रखो! प्रकृति ने तुम्हें चिर सजग आँखें दी हैं। इन्हें सजग बनाए रखो! बाहरी बाधाएँ हमेशा आएँगीभीतरी कमजोरी भी परेशान करेगी। तुम्हारा अपना व्यक्तित्व भी कभी-कभी तुम्हें बाँध लेगा। मगर इन सबसे तुम्हें मुक्त होना है।
     

     
     ·  सब बुझे दीपक जला लूँ कविता में महादेवी आत्मविश्वास पूर्वक कहती हैं कि चाहे जितनी परेशानियाँ हों, मैं संघर्ष के लिए तैयार हूँ वे प्रत्येक संघर्ष को आत्मबल के सहारे जारी रखना चाहती हैं । इस कविता में प्रतीकों के माध्यम से ढेर सारी कठिनाइयों का जिक्र किया गया है, जैसे-आँधी, तड़ित, मारुत आदि। इन सबसे लड़ने के लिए महादेवी जिन उपकरणों का उपयोग करती हैं, ये हैं तृण, ऊँगलियों की ओट आदि। 
    रोमानी शैली में वर्णित इन प्रकरणों में मुख्य बात यही है कि आत्मविश्वास बनाए रखना चाहिए। महादेवी यह भी कहती हैं कि मेरी मदद करने का अहसान मुझ पर मत लादना में ज्वार को ही नौका बना लूँगी।
     
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