स्वच्छन्दतावाद क्या है | Swachchhandatavad kya hai | swachchhandatavad | Romanticism kya hai
‘स्वच्छंदतावाद’ ‘रोमांटिसिज़्म’ का हिंदी अनुवाद है । हिंदी में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कदाचित् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में पं. श्रीधर पाठक को ‘स्वच्छंदतावाद’ का प्रवर्तक मानते हुए किया है । ‘रोमांटिक’ शब्द को एक काव्य प्रवृत्ति अथवा ‘वाद’ के रूप में सर्वप्रथम प्रयुक्त करने वाले जर्मन आलोचक फ्रेड्रिक श्लेगल थे । इन्होंने 1798-1800 ई. के बीच इस शब्द का प्रयोग ‘क्लासिसिज़्म’ के विरोधी अर्थों में किया ।
राजनैतिक दृष्टि से ‘स्वच्छंदतावाद’ के उदय में अमेरिकन स्वातंत्र्य-युद्ध और इसके बाद 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । फ्रांसीसी क्रांति का यह नारा – स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृत्व (Liberty, Equality and Fraternity) स्वच्छन्दतावादी साहित्यकारों को भी बराबर आंदोलित करता रहा है । वस्तुत: साहित्य के क्षेत्र में स्वच्छन्दतावाद का उदय नवशास्त्रवादी नियमबद्धता, कृत्रिमता, आडंबरप्रियता अथवा शास्त्रवादी या रीतिवादी परंपरा, नियम और तर्क के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप हुआ।
इंग्लैंड में स्वच्छन्दतावादी काव्यान्दोलन का मार्ग प्रशस्त करने वाले दो कवि राबर्ट बर्न्स एवं विलियम ब्लेक थे। वस्तुतः अंग्रेजी कविता में स्वच्छन्दतावादी काव्य-आंदोलन का प्रारम्भ विलियम वर्ड्सवर्थ के ‘लिरिकल बैलेड्स’ से हुआ। अंग्रेजी में वर्ड्सवर्थ के बाद कॉलरिज़, शेली, बायरन, कीट्स, सर वाल्टर स्कॉट आदि अनेक स्वच्छन्दतावादी साहित्यकारों द्वारा इस काव्य-आंदोलन का पर्याप्त पल्लवन एवं विकास हुआ ।
विक्टर ह्यूगो ने स्वच्छन्दतावाद को पारिभाषित करते हुए इसे ‘साहित्यिक उदारवादिता’ कहा है। वाल्टर रेले ‘दूरी के प्रति सम्मोहन’ इसकी प्रमुख विशेषता मानते हैं । प्रो.कैजामियाँ के अनुसार ‘स्वच्छन्दतावाद आत्मा का विजय घोष’ है तथा इसकी ‘भावना-प्रेरित कल्पनातिरेक’ मूल प्रवृत्ति है ।
भारतीय विद्वानों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रोमांटिक साहित्य को आत्मानुभूति, आवेगधारा एवं कल्पना-प्रधान माना है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी रोमांटिक साहित्य की प्रधान जननी कल्पना एवं आवेग को मानते हैं। डॉ.देवराज उपाध्याय ‘आंतरिक स्पिरिट’, कल्पना भावोन्माद, कला की सादगी आदि को स्वच्छन्दतावाद के प्रमुख लक्षण मानते हैं ।
स्वच्छंदतावाद का अर्थ और परिभाषा
पाश्चात्य साहित्य चिंतन में ‘रोमांटिसिज़्म’
अथवा ‘स्वच्छंदतावाद’ को प्रायः ‘क्लासिसिज़्म’ अथवा अथवा ‘आभिजात्यवाद’ की विरोधी प्रवृत्ति के रूप में देखा जाता है । ‘आभिजात्यवाद’ में
जहाँ साहित्य के लिए वस्तुपरक शास्त्रीय नियमों का अनुशासन आवश्यक माना जाता है, वहाँ स्वच्छंदतावाद आत्मपरकता के साथ रचनाकार की
स्वतंत्रता के अधिकार का समर्थन करता है।
अंग्रेजी आलोचना में ‘रोमांटिसिज़्म’ शब्द का प्रयोग 18 वीं सदी के अंत में उभरी एक विशिष्ट प्रवृत्ति के लिए हुआ जो मुख्य रूप से कविता के क्षेत्र में प्रतिफलित हुई थी किन्तु जिसने साहित्य तथा कला के अन्य क्षेत्रों पर भी गहरा प्रभाव छोड़ा।
‘रोमांटिसिज़्म’ का सीधा अर्थ ‘रोमांस’ से जुड़ा है जिसका प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में होता रहा है। ‘रोमांस’ शब्द सामान्यत: अतिभावुक तथा कल्पना-प्रधान मनोवृत्ति के लिए प्रयुक्त होता है । ऐसी प्रवृत्ति जिसके लिए कुछ भी असंभाव्य नहीं है । यहीं से आरंभ होकर इसका प्रयोग मध्यकाल की प्रेम तथा साहसिकतापूर्ण कथाओं और लोक-गाथाओं के लिए होने लगा। संभव-असंभव स्थितियों से जूझते चरित्रों वाली ये कथाएं प्रेम और वीरता के अत्यंत ऊँचे आदर्शों पर आधारित होती थीं और इनमें प्राय: रहस्यमय अति-मानवीय तत्वों का समावेश भी होता था। इन्हीं कथाओं को रोमांच कहा जाता था।
आगे चलकर इस शब्द का प्रयोग
साहित्य की उस प्रवृत्ति के लिए होने लगा जो वस्तुवाद, शास्त्रवादी तथा आदर्शवादी अनुशासन से प्रेरित गद्यात्मक साहित्य के
विरुद्ध वस्तु तथा भाषा के स्तर पर भावुकता, चारुत्व और रमणीयता से युक्त साहित्य की वकालत करती थी।
18 वीं शताब्दी में प्रयोग तथा क्षेत्र, दोनों दृष्टियों से इस शब्द का अर्थ-विस्तार हो गया। फ्रांस में उच्च-वर्गीय अन्याय एवं शोषण के विरुद्ध स्वातन्त्र्य भावना से प्रेरित जो जनआंदोलन हुआ था, ‘रोमांस’ का संबंध उस भावना से भी जोड़ा जाता है। इस अर्थ में वह व्यक्ति या स्थिति-विशेष के स्थान पर पूरी मानवता की स्वातन्त्र्य-चेतना से जुड़ गया।
हिंदी में ‘रोमांटिसिज़्म’ के लिए ‘स्वच्छंदतावाद’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। स्पष्ट है कि इस शब्द से इस सिद्धांत या मनोवृत्ति के एक ही पक्ष का संकेत मिलता है, किन्तु यह शब्द ‘रोमांटिसिज़्म’ शब्द के संपूर्ण अर्थ के लिए रूढ़ हो गया है। पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र में भी ‘रोमांटिसिज़्म’ शब्द का प्रयोग तो लंबे समय से होता रहा, किन्तु इसके पारिभाषिक अर्थ का निर्धारण बहुत बाद में हुआ। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग सबसे पहले फ्रांस में 1669 ई. में हुआ । वहाँ यह शब्द कला-चिंतन के संदर्भ में प्रयोग में आया ।
अंग्रेजी में भी यह शब्द 17 वीं शताब्दी में ही आ गया था, किंतु साहित्य के प्रसंग में इसका अर्थ स्पष्ट और सुनिश्चित नहीं था । इसके सटीक अर्थ के बारे में यूरोपीय साहित्य जगत में काफी समय तक वाद-विवाद भी होता रहा।
अंततः जर्मनी के श्लेगल ने शास्त्रवाद या ‘क्लासिसिज़्म’ की विपरीत प्रवृत्ति के रूप में इसका अर्थ निर्धारित किया। विडंबना यह है कि इसे सबसे अधिक प्रसिद्धि अंग्रेजी काव्य की एक प्रवृत्ति के रूप में मिली किंतु उस प्रवृत्ति से जुड़े प्रख्यात कवियों- वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज़ शेली आदि ने अपने तथा अपने युग के काव्य-सिद्धांतों की चर्चा के दौरान कहीं भी इस शब्द का प्रयोग नहीं किया, न ही वे इसके अर्थ या प्रयोग को लेकर किसी विवाद में पड़े।
‘क्लासिसिज़्म’ की
विपरीत प्रवृत्ति के रूप में इसका अर्थ निर्धारित करने का तात्पर्य यह नहीं है कि
यह प्रवृत्ति नकारात्मक या निषेधात्मक है। वस्तुत: इस प्रवृत्ति को परिभाषा के माध्यम से
नहीं, इतिहास और प्रवृत्तियों के आधार पर समझा जा सकता
है ।
स्वच्छंदतावाद का इतिहास
आज ‘स्वच्छंदतावाद’ (रोमांटिसिज़्म)
का प्रयोग जिस प्रवृत्ति के लिए किया जाता है, वह मुखर रूप से 18 वीं
शताब्दी के अंत में अंग्रेजी साहित्य में प्रकट हुई। इससे मिलती-जुलती प्रवृत्ति इससे पहले भी
विशेषकर एलिजाबेथन युग में दिखाई पड़ी थी। उस समय मध्ययुगीन समाज के प्रति आकर्षण और प्रेम
तथा सौंदर्य के प्रति नई दृष्टि के रूप में उभरी थी। किन्तु तब यह साहित्य के
व्यापक प्रवाह के बीच एक धारा मात्र थी ।
1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति को अक्सर स्वच्छंदतावाद का प्रस्थान-बिंदु कहा गया है। कुछ लोगों ने 1776 ई. की अमेरिकी क्रांति का भी उल्लेख इसके मूल कारणों में किया है, परंतु इसका सीधा अर्थ और तात्कालिक संबंध फ्रांसीसी कांति और उसके उत्प्रेरक विचारकों से है । इसमें वाल्टेयर (1694-1778) और रूसो (1712-1778) के विचारों का विशेष योगदान माना जाता है ।
लंबे संघर्ष के बाद मानव-मुक्ति का स्वप्न इस
क्रांति के रूप में साकार हुआ जिसने यूरोप के साहित्य को ही नहीं बल्कि इतिहास, दर्शन,
संस्कृति, संगीत, कला-सभी को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया और मध्य-वर्ग
के बुद्धिजीवियों में नए उत्साह,
आत्मविश्वास और चेतना का संचार किया।
अंग्रेजी में स्वच्छंदतावाद की शुरुआत सैद्धांतिक विवेचन से नहीं कवि-कर्म से हुई । इसकी प्रवृत्तियों का आभास बर्न्स और ब्लेक, विशेष रूप से ब्लेक की कविताओं में मिलने लगा था किंतु सही रूप में इसका प्रवर्तन वर्ड्सवर्थ (1770-1850) और कॉलरिज़ (1779-1850) के सहयोगी प्रकाशन ‘लिरिकल बैलेड्स’(1807) से माना जाता है ।
इस संग्रह के दो ही वर्ष बाद प्रकाशित दूसरे
संस्करण की भूमिका ‘प्रिफेस टू लिरिकल बैलेड्स’ को स्वच्छंदतावाद का घोषणा-पत्र कहा
जाता है वर्ड्सवर्थ की प्रसिद्धि जिन
स्थापनाओं के कारण विशेष रूप से हुई उनमें उनकी प्राय: उद्धृत की जाने वाली काव्य-परिभाषा
है जिसमें उन्होंने कविता को ‘प्रबल
मनोवेगों का स्वतः स्फूर्त उच्छलन’ कहा है।
स्वच्छंदतावाद दूसरे चरण(1798-1852 ई.) में अपने पूरे निखार पर बायरन, शेली, कीट्स जैसे रचनाकारों की कृतियों में ही आया। अंग्रेजी में स्वच्छंदतावाद के इतिहास को ‘ब्लेक से बायरन तक’ सूत्र से अभिहित किया जाता है ।
स्वच्छंदतावाद
की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
साहित्य में यह विद्रोह जड़ता, रूढ़ियों तथा अप्रासंगिक होती हुई लेखन-परंपराओं से लेखक
की मुक्ति के प्रयास में दिखाई देता है। ल्यूकस ने इसे अवचेतन का विद्रोह कहा है ।
यानी इन रचनाकारों की अंतरात्मा विद्रोह करती। इसीलिए मुक्ति की ललक साहित्य की
अंतर्वस्तु तथा रूप,
दोनों स्तरों पर उपस्थित है।
विषय वस्तु के स्तर पर स्वच्छंदतावादी रचनाकारों
ने उदात्त चरित्रों की गाथा गाने के स्थान पर साधारण मानव के सामान्य अनुभवों तथा
अपने परिवेश और प्रकृति के सामान्य-सहज रूपों को अंकित किया। इनकी रचनाओं में
ग्रामीण जीवन के अनेक नैसर्गिक चित्र – किसान, ग्राम बालाएं,
ग्राम प्रकृति - विषय वस्तु के रूप में
स्थान लेती दिखाई पड़ती हैं। यह लोक-संपृक्त
स्वच्छंदतावाद का प्राण है जो एक स्तर पर विद्रोह भी है – कृत्रिमता के विरुद्ध
स्वाभाविकता और सहजता की प्रतिष्ठा के लिए विद्रोह ।
स्वच्छंदतावादी कवियों ने शैली और शिल्प के प्रयोग में भी इसी विद्रोही प्रवृत्ति का प्रमाण दिया । इन्होंने अपने-अपने तरीकों से नए प्रयोग तो किए ही, साथ ही शैली और शिल्प के बारे में इनमें आपसी मतभेद भी रहे। यह वैविध्य और प्रयोगशीलता व्यक्ति-स्वातंत्र्य का ही एक रूप है जिसकी गुंजाइश आभिजात्यवाद के नियम-अनुशासन में नहीं थी।
किन्तु एक बात जो इनकी विभिन्नता में समान है, वह है सहज-सामान्यता के प्रति रुझान। पुरानी नपी-तुली कृत्रिम भाषा(पोएटिक डिक्शन) से
भिन्न यह भाषा अपनी विभिन्नता के बावजूद पढ़ने वाले से एक आत्मीय संवाद स्थापित
करती है, उस पर अपनी विद्वता तथा गरिमा का रौब नहीं डालती।
यह भाषा विषयानुरूप तथा भाव-समृद्ध है।
2. भाव-प्रवणता : भाव-प्रवणता
भी स्वच्छंदतावादी साहित्य
की एक प्रमुख विशेषता है। वर्ड्सवर्थ ने
तो कविता की परिभाषा ही ‘प्रबल मनोवेगों के सहज उच्छलन’ के रूप
में की थी। किंतु यह उच्छलन अनुशासनहीन
भावातिरेक, भावों की अधिव्यक्ति या अतिव्यक्ति नहीं था। इसके पीछे सूक्ष्म संवेदनशीलता का आग्रह था जो
कल्पना से युक्त होकर रचनाकार की आंतरिक अनुभूति को ईमानदारी से उद्घाटित करती थी।
यह भाव-प्रवणता और कल्पना-शक्ति उन्हें
आत्माभिव्यक्ति की प्रेरणा और क्षमता ही नहीं देती बल्कि वह सहजानुभूति तथा
समानुभूति भी देती है जिससे वे आत्मेतर विषयों के अंतर में पैठकर उनकी भावनाओं और
उनके प्रति अपनी भावनाओं को प्रस्तुत कर सकें। यह जीवन-निरपेक्ष नहीं जीवन-सापेक्ष भावानुभूति
है।
जिन वर्ड्सवर्थ ने कविता को ‘प्रबल
मनोवेगों का सहज उच्छलन’ कहकर परिभाषित किया है उन्हीं ने उसे ‘मानव और प्रकृति की प्रतिछवि’ (पोएट्री
इज द इमेज ऑफ मैन एंड नेचर) कह कर उसकी जीवन-निर्भरता का संकेट भी किया ।
3.
कल्पना : कल्पना को भी स्वच्छंदतावाद में बहुत महत्व दिया गया। इसे काव्य की विधायिनी शक्ति के रूप में देखा
गया जो स्थूल बाह्य जगत के अंदर स्थित सूक्ष्म भाव जगत को समझने में रचनाकार की
सहायता करती है। कॉलरिज़ ने तो कल्पना का
विस्तार से सैद्धांतिक विवेचन करते हुए सामान्य व्यक्ति की कल्पना से बढ़कर कवि-कल्पना
का महत्व स्थापित किया।
उन्होंने इसे
सृजनकारिणी ‘आदि शक्ति’ तथा मस्तिष्क की सबसे अधिक प्राणवान क्रिया
का दर्जा दे दिया। वे इसे काव्य की ऐसी संश्लेषणात्मक
अलौकिक शक्ति मानते हैं जो कवि के सम्पूर्ण सृजन-व्यापार को क्रियान्वित करती है ।
कल्पना की नवनवोन्मेषशालिनी क्षमता के बल पर कवि सामान्य तथा स्थूल वस्तु-जगत के साक्षात्कार
से भी एक अतिंद्रीय, अमूर्त रहस्यमय लोक में या किसी नैतिक और दार्शनिक सत्य तक
पहुँच जाता है और दूसरी और भावों तथा विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने में कल्पना
का महत्वपूर्ण योगदान होता है । कल्पना लगभग सृजन-प्रक्रिया का पर्याय है ।
4. अतीतोन्मुखता : स्वच्छंदतावादी रचनाकारों में मध्ययुगीन रोमांसों तथा रूढ़ियों के प्रति जबरदस्त आकर्षण मिलता है । इसका प्रमुख
कारण है - अपने वर्तमान की वास्तविकताओं से टकराहट, तर्क और बौद्धिक शुष्कता ऊब और रूढ़ होती काव्य-
शैलियों से मुक्ति की छटपटाहट। निकट
वर्तमान से असंतुष्ट व्यक्ति की सहज प्रवृत्ति यह होती है कि या तो वह अतीत गौरव
को फिर से सजीव, साकार करने का प्रयत्न करता है या भविष्य के लिए स्वप्न-निर्माण
करता है। दोनों ही स्थितियों में वह
कल्पना के सहारे प्रत्यक्ष वर्तमान से अलग संसार रचता है।
इन कवियों ने कल्पना की सहायता से मध्य युग की
चित्रमयता और रोमांस को सजीव किया । कॉलरिज़
और कीट्स की कविता और वाल्टर स्कॉट के उपन्यासों में अतीत का पुनरावर्तन सबसे
प्रबल रूप में दिखाई पड़ता है । इन कवियों ने अतीत की राष्ट्रीय- सांस्कृतिक गरिमा
को अपने प्रगीतों में पुनर्जीवित किया । परंतु यह अतीत का अनुकरण नहीं बल्कि
पुनर्सृजन था ।
5. अद्भुत के प्रति आकर्षण : मध्य-युगीन रोमांस
के प्रति स्वच्छंदतावादियों की रुचि अद्भुत के प्रति उनके आकर्षण से भी पुष्ट हुई। वाल्टर पेटर ने स्वच्छंदतावाद की एक विशेषता यह मानी है कि यह सौन्दर्य में
अद्भुत तत्व जोड़ता है। (addition of strangeness to
beauty) ।
वाट्स डटन ने इसे अद्भुत का पुनर्जागरण (रेनेसा ऑफ वंडर) कहा
है। अद्भुत के प्रति यह आकर्षण कई रूपों
में व्यक्त हुआ है। अपने तीव्रतम रूप में
यह प्रवृत्ति अति-मानवीय या अलौकिक तत्वों की चर्चा में दिखाई पड़ती है- विशेषकर कॉलरिज़ और स्कॉट की रचनाओं में। अन्य
रचनाकारों में यह कुतूहल, विस्मय तथा रहस्य के भाव में व्यक्त हुआ।
एक और उनकी रुचि विचित्र, अद्भुत और जादुई
से प्रतीत होने वाले विषयों और वस्तुओं की ओर हो जाती है तथा दूसरी ओर वे जाने-पहचाने
जीवन-संदर्भों तथा तथा वस्तुओं को नई दृष्टि से देखना आरंभ कर देते हैं। जगत के व्यक्त सौंदर्य में वे अव्यक्त सौन्दर्य
या अदृश्य सत्ता के दर्शन करने लगते हैं जिसकी चरम परिणति रहस्य-भावना में होती है
।
6. व्यक्तिवाद : व्यक्तिवाद विषयों को नई दृष्टि से देखने का अगला चरण था- बाह्य अनुभव से आंतरिक अनुभूति की ओर यात्रा। इस प्रवृत्ति और भाव-प्रवणता के प्रभाव से स्वच्छंदतावादी साहित्य ने स्वाभाविक रूप से वैयक्तिकता और आत्मपरकता को एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया।
पिछले युग में पोप और मिल्टन जैसे रचनाकार भी परिचित स्थितियों तथा लोक-प्रसिद्ध कथाओं को रचना का आधार बनाकर चल रहे थे । स्वच्छंदतावाद ने वस्तुगत ज्ञान की तुलना में स्वानुभव को अधिक महत्व दिया। इस युग के साहित्यकारों की रचनाओं में आभिजात्यवादी निर्वैयक्तिकता के स्थान पर रचनाकार की अपनी दृष्टि और अपनी अनुभूति सहज तथा आत्मीय रूप में व्यक्त हुई।
रचनाकारों के अपने सुख-दुख, नैराश्य, वेदना,
उल्लास कविता और निबंधों के विषय बने । इसीलिए इनके काव्य में विवेक के स्थान पर भावानुकूलता
के साथ विषाद का भाव भी मिलता है। यह
भाव समाज तथा स्थितियों से संघर्ष के क्रम में संवेदनशील भाव-प्रवण व्यक्ति-मन
की सहज प्रतिक्रिया है।
रूसो के जन-स्वातंत्र्य के आह्वान से गहराई
तक प्रेरित यह सिद्धान्त व्यक्ति और कवि की स्वतन्त्रता को रचना-कर्म के लिए अनिवार्य
मानता है। अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में इन कवियों ने जो साहस दिखाया है वह
पहले के कवियों में नहीं मिलता।
इन कवियों
ने स्वतंत्रता को मूल्य मानते हुए कथ्य तथा शिल्प दोनों स्तरों पर नए और मौलिक
प्रयोगों की छूट ली । ‘लिरिकल
बैलेड्स’ की भूमिका में
वर्ड्सवर्थ ने अपनी कविता को स्पष्ट रूप से प्रयोग कहा है और उसकी आवश्यकता के
पक्ष में तर्क भी दिए हैं।
7. सौंदर्याभिमुखता : स्वच्छंदतावाद ने गुरु-गंभीरता के स्थान पर सौंदर्य को अधिक महत्व दिया। कीट्स ने सत्य तथा सुंदर को अभिन्न मानते हुए कहा कि सौंदर्य ही सत्य है। सौंदर्य इन कवियों के लिए केवल विषय नहीं है उनका सौंदर्य-दर्शन और सौंदर्य की नई-दृष्टि अपने पूर्ववर्तियों और परवर्तियों से अलग है । यह नई सौंदर्य- दृष्टि बाह्य जगत तथा प्रकृति में तो सौंदर्य का अन्वेषण करती ही है, कविता में भी बाह्य तथा आंतरिक सौंदर्य की आवश्यकता पर बल देती है।
इस सौंदर्य-प्रेम तथा सौंदर्य-जिज्ञासा को पेटर
ने स्वच्छंदतावादी चेतना का मूल तत्व माना था। इन कवियों की दृष्टि सर्वत्र प्रेम और सौंदर्य
की ओर जाती है । वह चाहे रूप-रंग का सौंदर्य हो या मन, वचन और कर्म का सौंदर्य।
मानव-सौंदर्य को तो उन्होंने खुली आंखों से देखा ही, किंतु उनका सौंदर्य-प्रेम प्रकृति के उन्मुक्त सौंदर्य के संसर्ग से
उद्भूत हुआ है । शेली सम्पूर्ण प्रकृति को सौंदर्यमयी पाते हैं ।
8. प्रकृति प्रेम : रूसो ने मानव को प्रकृति की ओर प्रत्यावर्तन के लिए पुकारा था। स्वच्छंदतावादी रचनाकार प्रकृति की ओर एकाधिक रूपों में लौटे। सबसे पहले तो यह वापसी बनावटी सौंदर्य के तिरस्कार और प्राकृतिक रूपों के प्रति आकर्षण में दिखाई दी। औद्योगिक सभ्यता की विकृतियों और घुटन से व्याकुल इन संवेदनशील साहित्यकारों के लिए प्रकृति एक शरणस्थली थी।
इसे उन्होंने बाह्य जीवन के सुंदर परिवेश के रूप
में नहीं बल्कि जीवन के प्रेरणादायक तत्व के रूप में ग्रहण किया। वर्ड्सवर्थ ने अपनी कविता ‘टिंटर्न
एबे’ में प्रकृति को ‘धात्री, पथ-प्रदर्शिका, संरक्षिका तथा अपने
संपूर्ण नैतिक अस्तित्व की आत्मा’ के रूप में संबोधित किया।
बायरन, शेली
और कीट्स की कविता में भी प्रकृति अपने विविध रूपों में अभिव्यक्ति पाती है। प्रकृति में ये कवि अपने भावों का प्रतिबिंब भी
देखते हैं और उसके रूपों तथा बिंबों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति को भी समृद्ध
करते हैं। प्रकृति के साथ इन रचनाकारों का
संबंध तब रहस्यानुभूति की सीमा का स्पर्श करने लगता है, जब वे इसके माध्यम से अपने अंतर्जगत की पहचान
करते हैं या परमसत्ता का साक्षात्कार करते हैं। प्रकृति को वे स्वतःपूर्ण समझते हुए उसे जीवंत
सत्ता तथा ईश्वरीय ज्योति से प्रभासित मानते हैं। प्रकृति इन्हें नैतिकता और आध्यात्मिकता का पाठ
पढ़ाती है और सत्य का साक्षात्कार कराती
है।
9. भाषा
और शिल्प : प्रकृति के प्रति झुकाव स्वच्छंदतावाद के भाषा-शैली
संबंधित सिद्धांतों में भी अभिव्यक्त होता है। हालांकि इस दौर के रचनाकारों में भाव, भाषा तथा शिल्प की अपार विविधता दिखाई पड़ती है, किंतु एक बिंदु
पर ये सभी सहमत थे। वे सभी सायास शिल्प और
बाह्य अलंकरण के विरोधी थे । वे मानव के नैसर्गिक मूल भावों का चित्रण सहज तथा
आडंबरहीन भाषा-शैली में करने के पक्षधर थे।
वर्ड्सवर्थ ने तो बोलचाल की आम भाषा को ही
काव्य-भाषा के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया। अन्य रचनाकारों ने इस अतिवाद
को भले ही स्वीकार न किया हो,
परंतु काव्यास्वाद तथा भाव-संप्रेषण के लिए सहज अकृत्रिम भाषा के प्रयोग को
आवश्यकता ठहराया।
भाषा की सहजता से तात्पर्य भावों अथवा
अभिव्यक्तियों की सपाटता से नहीं है । सभी स्वच्छंदतावादी
रचनाकारों में सूक्ष्म अर्थच्छायाओं को उद्घाटित करने के लिए भाषा और ध्वनि
के संगीत का सुंदर उपयोग हुआ है। सपाट गद्यात्मक कथन के स्थान पर वे सूक्ष्म
व्यंजना और सांकेतिकता के महत्व पर बल देते हैं, जिससे काव्य में रहस्यात्मक सौंदर्य और दर्शनिकता के साथ-साथ
अभिव्यंजना शक्ति भी बढ़ जाती है ।
छंद प्रयोग में भी इस युग के कवि का स्वातंत्र्य भाव स्पष्ट है। पिछले युग के सधे-बंधे अनुशासित तुकांत ‘हीरोइक कपलेट’ के
स्थान पर इन्होंने कोमल मधुर प्रगीत (लिरिक) या फिर मुक्त छंद (फ्री वर्स/ब्लैंक
वर्स) को अपनाया तथा उसकी अपार क्षमता को उद्घाटित किया। इन्होंने अन्य छंदों का प्रयोग भी किया परंतु अपने
ही ढंग और मिजाज़ से ।
स्वच्छंदतावादी
काव्य अपनी विपुल प्रगीत-सृष्टि के कारण पहले और बाद के कवियों के बीच एक
विशिष्ट स्थान रखता है। यह विशिष्टता
बाह्य रूप भर की नहीं है। वस्तुत: तीव्र अनुभुति और भावावेग से प्रेरित इन
रचनाओं में आंतरिक संगीत का प्रवाह है, भाषा की गतिशीलता है और साथ ही भाव की केंद्रीयता तथा
एकाग्रता है। इन कवियों ने प्रबंधों की
रचना भी की है परंतु वह इनकी प्रिय नहीं विधा नहीं है।
भाषा और छंद की नवीनता के साथ स्वभावत: इन
कवियों का बिंब विधान भी अपनी मौलिकता तथा ताजगी के कारण आकर्षित करता है। उन्होंने अपने बिंबों का चयन प्रकृति से तो किया
ही, इसके अतिरिक्त जनमानस में संचित लोक-गाथाओं के
बिंबों को भी कविता में उतारा। इसके अतिरिक्त, मध्ययुगीन सूरमाओं,
परियों, चर्च चैपल आदि से
संबंधित बिंबों का भी इन्होंने उपयोग किया।
सारांश में इनके कविता अपनी
बिंब-धर्मिता के कारण ही नहीं बल्कि बिंबों की विविधता और मौलिकता के कारण अपनी
अलग पहचान रखती है ।
निष्कर्ष
स्वच्छंदतावाद अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान लगभग संपूर्ण यूरोपीय कला-जगत, विशेष रूप से साहित्य में, व्याप्त ऐसा आंदोलन है जिसका उदय नव्य-शास्त्रवाद की निर्जीव और रूढ़ होती कला-पद्धतियों की प्रतिक्रिया में हुआ । स्वभावत: इसमें वैयक्तिक प्रतिभा और कल्पना से प्रेरित मौलिक रचनात्मकता और नए प्रयोगों पर विशेष बल दिया गया।
विविधता के बीच स्वच्छंदतावाद की समान विशेषताएँ ही उसकी पहचान निर्धारित करती हैं । इन विशेषताओं में मुख्य हैं – वैयक्तिकता, अनुभूति-प्रवणता, अद्भुत के प्रति आकर्षण, कल्पना की प्रधानता, अतीतोन्मुखता, सौंदर्याभिमुखता, प्रकृति-प्रेम और अभिव्यंजना शिल्प की प्रयोगधर्मिता। हिंदी में आधुनिक युग में छायावाद को स्वच्छंदतावाद के रूप में देखा जा सकता है किन्तु इसे पश्चिमी ढंग का स्वच्छंदतावाद नहीं माना जा सकता ।
Post a Comment