नाटक के तत्व | Natak Ke Tatva

 

नाटक के तत्व | Natak Ke Tatva


      हिंदी नाटक के स्वरूप निर्माण में भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही नाट्य दृष्टियों का योगदान रहा है। अतः भारतीय और पाश्चात्य नाट्य तत्वों की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है।

         भारतीय नाट्य सिद्धांत संस्कृत के नाटकों के आधार पर निर्मित हुए थे तथा पश्चिमी नाट्य सिद्धांतों का आधार यूनानी नाटक थे।

         भारतीय आचार्यों ने नाटक के तीन अनिवार्य तत्व माने हैं--वस्तु, नेता और रस। वस्तु का अर्थ है कथावस्तु, नेता यानी पात्र और रस यानी रचना से उत्पन्न होने वाला प्रभाव या उसकी अनुभूति। अर्थात् रचनाकार द्वारा अनुभूत सत्य की दर्शक अथवा पाठक को प्रतीति अथवा अनुभूति ।

         पाश्चात्य आचार्यों ने नाटक के छह तत्व माने हैं:  कथावस्तु, पात्र, देशकाल, संवाद, शैली और उद्देश्य। इसके अलावा वहाँ संकलन-त्रय यानी नाटक में स्थान, समय और काल की एकता पर भी जोर दिया गया है।

         पश्चिम में सुखांत (Comedy) और दुखांत (Tragedy) दो तरह के नाटकों का प्रचलन रहा है जो क्रमशः कामदी (Comedy) और त्रासदी (Tragedy) कहलाते हैं।

     किंतु संस्कृत नाटक में त्रासदी को सैद्धांतिक स्तर पर स्वीकार नहीं किया गया था। नायक का पतन अथवा उसकी मृत्यु दिखाना भारतीय नाट्य दृष्टि के अनुकूल न था। जबकि पश्चिम में त्रासदी को कामदी से श्रेष्ठ और बृहत्तर रचना स्वीकार किया गया और उसके माध्यम से मानवीय भावों के परिष्कार की संकल्पना की गई।  

     

         रचना-दृष्टि के इस भेद के अनुरूप ही पूर्वी और पश्चिमी नाट्य तत्वों में अलग-अलग तरह की विशिष्टताएँ विकसित हुई। पश्चिमी नाटक में द्वंद्व अथवा संघर्ष को प्रधानता दी गई और भारतीय नाटक में रसानुभूति को।

         हिंदी नाटककारों ने न तो भारतीय नाट्य सिद्धांतों को पूर्णतया स्वीकार किया है, न पश्चिमी नाट्य सिद्धांतों का अंधानुकरण ही किया है। दोनों ही दृष्टियों को अपनाते हुए उन्होंने स्थिति और प्रसंग के अनुकूल अपने नाटकों की रचना की है। इस तरह नाटक के तत्वों के भीतर दोनों नाट्य दृष्टियों का समावेश हुआ है। साथ ही परंपरा से छूट लेकर नए प्रयोग भी किए गए हैं।

     

    नाटक के प्रमुख तत्व निम्नानुसार हैं :

     

    1. कथावस्तु (Plot)

         कथानक या कथावस्तु (Plot) का अर्थ है घटनाओं या कार्य-व्यापार की योजना। लेखक अपनी कथावस्तु का चयन जीवन के किसी भी क्षेत्र से कर सकता है। समाज, राजनीति, इतिहास, मनोविज्ञान आदि किसी को भी वह अपने नाटक का विषय बना सकता है। नाटक में जीवन की क्रियाशील सजीवता होती है। जीवन की घटनाएं उसमें दृश्य रूप में प्रस्तुत होती हैं। ऐसी स्थिति में नाटककार जिस कथ्य को चुनता है उसका संपूर्ण घटना व्यापार दृश्य रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

         यदि हम नाटक और उपन्यास की तुलना करें तो पाते हैं कि उपन्यास का पाठक उसे कई बार बीच में से छोड़-छोड़ कर भी पढ़ सकता है किंतु नाटक एक बार में ही देखा जाता है। अतः उसका समय दो-तीन घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए।

     

         ऐसी स्थिति में नाटककार अपने कथ्य का कुछ अंश दृश्य रूप में प्रस्तुत करता है। शेष आवश्यक स्थितियों और कार्यकलापों की सूचना पात्रों द्वारा प्रस्तुत कराता है । इस तरह कथानक में कार्य-व्यापार दो तरह से आगे बढ़ता है, दृश्य घटनाओं के माध्यम से और सूच्य घटनाओं के माध्यम से।

     

          कथानक दो प्रकार के होते हैं, आधिकारिक और प्रासंगिक आधिकारिक कथानक का संबंध नाटक के मुख्य कार्य या उद्देश्य से होता है। यह कथा नाटक के प्रधान पात्रों से संबंधित होती है। प्रासंगिक कथा का अर्थ है प्रसंगवश आयी हुई या गौण कथा। इस कथा का सीधा संबंध नायक अथवा नायिका से न होकर अन्य पात्रों से होता है किंतु प्रासंगिक कथा नाटक की मूल कथा यानी आधिकारिक कथा से सर्वथा स्वतंत्र नहीं होती बल्कि यह मूलकथा की गति को आगे बढ़ाने में सहायक होती है। उदाहरण के लिए जयशंकर प्रसादके नाटक ध्रुवस्वामिनीमें कोमा और शकराज की कथा प्रासंगिक कथा के रूप में प्रस्तुत की गयी है।

     

         संस्कृत के आचार्यों ने कथावस्तु के अंतर्गत कार्य की पाँच अवस्थाएँ मानी हैं -  आरंभ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम।

         कथानक को पाँच भागों में विभक्त किया गया। बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य ।

         पश्चिमी नाटक में भी कार्य की छह अवस्थाएँ मानी गई हैं जो कथावस्तु के

    1) प्रमुख कार्य व्यापार को प्रकट करके,

    2) संघर्ष का सूत्रपात करती हुई,

    3) कार्य को चरम सीमा की ओर बढ़ाती है,

    4) चरम सीमा पर पहुँच कर संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और संघर्ष के दो पक्षों में से एक के ह्रास की शुरुआत होने लगती है और दूसरे की सफलता की संभावना बढ़ने लगती है।

    5) यह अवस्था भयंकर अंत के रूप में समाप्त होती है।

    वर्तमान के नाटकों में नाटक में कार्य-व्यापार की तीन स्थितियों महत्त्वपूर्ण होती है: 1) आरंभ, 2) विकास और 3) परिणति अथवा अंत।

     

    2. पात्र (Character)


         पात्र नाटक का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्व है। नाटक के अन्य सभी तत्व पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति पाते हैं। उनके आचार-व्यवहार और वार्तालाप से नाटक की कथावस्तु निर्मित होती है।

          नाटक का प्रधान पुरुष पात्र नायक कहलाता है और प्रधान स्त्री पात्र नायिका। नायक और नायिका के अतिरिक्त नाटक में मुख्य पात्र भी होते हैं जिनमें से कुछ नायक के सहयोगी पात्र होते हैं और कुछ प्रतिकूल अथवा विरोधी पात्र।

          प्रमुख विरोधी पात्र खलनायक या प्रतिनायक कहलाता है। इन पात्रों के अलावा एक और विशिष्ट पात्र नाटकों में होता है जिसे विदूषक कहते हैं। विदूषक भारतीय तथा पश्चिमी दोनों ही नाट्य-परंपराओं में मौजूद है। अंग्रेजी में इसे Clown कहा जाता है। शेक्सपियर के नाटकों में इसे Fool भी कहा गया है।

         विदूषक हास्य-व्यंग्य की सृष्टि के अलावा समग्र नाट्य व्यापार में प्रमुख भूमिका निभाता हैं। अपने बेडौल रूपाकार और हँसोड़ स्वभाव से दर्शकों का मनोरंजन करने के अलावा वह नायक का मित्र और सहयोगी होता है। उसकी भूलों पर व्यंग्य करता है और जरूरत के वक्त उसकी मदद करता है।

    आधुनिक नाटकों में विदूषक को एक अलग पात्र के रूप में प्रस्तुत करना जरूरी नहीं रह गया है। प्रधान या गौण पात्रों में से किसी से विदूषक का कार्य पूरा कर लिया जाता है। बहुत से नाटकों में विदूषक की भूमिका होती ही नहीं है।

         पात्रों की संख्या के संबंध में नाटक में कोई निश्चित नियम नहीं होता। कथावस्तु की आवश्यकताओं के अनुरूप पात्रों की योजना की जाती है। इतना ध्यान अवश्य रखा जाता है कि उतने ही पात्र रखे जाएँ जितने कार्य-व्यापार के विकास के लिए जरूरी हों।

          माना जाता है कि नाटक में कोई भी पात्र फालतू प्रतीत नहीं होना चाहिए। इसी तरह पात्रों की संख्या इतनी अधिक न हो जाए कि नाटक के समग्र प्रभाव में विघ्न पड़े अथवा रंगमंच पर पात्रों की अनावश्यक भीड़-भाड़ दिखाई दे। घटनाओं की जरूरत के हिसाब से ही पात्र होने चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि पात्रों के कार्य से कथानक विकसित हो और वे कथानक के अनिवार्य अंग हों।

         नाट्यशास्त्रमें नायक के विशिष्ट उदात्त गुणों की चर्चा की गई है। पश्चिम की प्राचीन नाट्य परंपरा भी नायक में श्रेष्ठ गुणों की अपेक्षा करती है। किंतु आधुनिक नाटक इस तरह की बंदिश को स्वीकार नहीं करता।

     महान नायक की परिकल्पना को झटकते हुए सामान्य मानवीय दुर्बलताओं का समावेश नायक में कराया गया है। यथार्थवादी नाट्य दृष्टि तथा विभिन्न सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और मानवतावादी विचारधाराओं के प्रभावस्वरूप आज नायक का स्थान प्रधान पात्र ने ले लिया है।

    3. परिवेश (Environment)

         परिवेश नाटकों का महत्त्वपूर्ण तत्व है। नाटक में प्रस्तुत घटनाएँ वर्णित न होकर प्रत्यक्ष रूप में सामने आती हैं। कथानक चाहे प्राचीन काल से संबद्ध हो या समसामयिक जीवन से, नाटक में वह वर्तमान के रूप में ही दृश्यमान और मूर्त होता है। अतः जिस समय, समाज और परिस्थिति को लिया गया हो वह हमारे सामने साकार हो उठनी चाहिए।

    उस काल-खंड विशेष का समग्र परिवेश, उसकी सभ्यता-संस्कृति, आचार-विचार, रीति-रिवाज, रहन-सहन और वैचारिक सरोकार की जीवंत अनुभूति नाट्य प्रस्तुति के माध्यम से होनी चाहिए। साथ ही उनकी प्रासंगिकता और विश्वसनीयता भी स्थापित होनी चाहिए।

          परिवेश की सृष्टि नाटक के कथ्य, घटनाओं, पात्रों के रूप, वेश विन्यास, भाषा, संवाद, शैली, मंच-सज्जा आदि सभी के द्वारा की जाती है और थोड़ी देर के लिए हम उस नाटक के समय, समाज और स्थिति में प्रवेश कर लेते हैं।

          देशकाल या परिवेश की सृष्टि जितनी उपयुक्त होगी नाटक उतना ही सार्थक होगा। जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्तऔर ध्रुवस्वामिनीका समस्त वातावरण क्रमशः मौर्य और गुप्त कालीन भारतीय समाज को प्रस्तुत करता है। साथ ही भारतीय मुक्ति संग्राम के सांस्कृतिक-सामाजिक नवजागरण के परिवेश की भी सृष्टि करता है।

     

    4. भाषा, शैली और संवाद (Language, style and dialogue)

    नाटक के तत्वों में भाषा, शैली और संवाद तीनों का विशेष महत्त्व है।

    (क) भाषा (Language) :

         नाटक में भाषा को बड़ा ही गंभीर दायित्व वहन करना पड़ता है। दृश्य विधा होने के कारण नाटक में हमारा भाषा से जीवंत साक्षात्कार होता है। भाषा के लिखित रूप के बजाए यहाँ उसके मौखिक रूप की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

          लिखित भाषा और मौखिक भाषा के स्वरूप और प्रभाव में अंतर होता हैं। किंतु नाटक में दोनों का समन्वय अपेक्षित होता है। जो बात पात्र कहें वह दर्शक को तुरंत संप्रेषणीय हो, इसलिए उसमें स्पष्टता नितांत अपेक्षित है। इसके साथ ही उसमें सार्थक सारगर्भितता भी हो जो दर्शकों को प्रभावित कर सके। यानी किसी भी गंभीर या महत्त्वपूर्ण बात को पूरी सहजता और स्पष्टता से इस प्रकार कहा जाए कि उसकी बोलचाल की लय समाप्त न हो।

          दूसरी ओर भाषा से एक अन्य महत्त्वपूर्ण अपेक्षा और की जाती कि वह पात्रानुकूल तथा परिवेश के उपयुक्त हो। यानी पात्रों के गुण, स्वभाव, शिक्षा-दीक्षा, सामाजिक हैसियत, मानसिक दशा के अनुकूल हो तथा जिस समय और समाज के वे पात्र हों उस समय और समाज के अनुरूप हो।

     

    (ख) शैली (Style)

         किसी भी कृति में कथ्य को प्रस्तुत करने का ढंग शैली कहलाता है। शैली नाटक का महत्त्वपूर्ण तत्व है। कोई भी बात अपने आप में जितनी महत्त्वपूर्ण होती है उतना ही उसके प्रस्तुत करने का ढंग भी महत्त्वपूर्ण होता है।

         शैली में दो चीजों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है : लेखक का अपना व्यक्तित्व और उसके द्वारा चुना गया विषय। विषय के अनुरूप शैली गंभीर विवेचनयुक्त, विश्लेषणात्मक, विवरणात्मक या व्यंग्यात्मक होती है।

         शैली के कई भेद होते हैं। उदाहरण के लिए- प्रतीकात्मक शैली, हास्यपरक शैली, व्यंग्यात्मक शैली, विचारपरक शैली, मनोविश्लेषणपरक शैली, भावनात्मक शैली, प्रसन्न शैली, पांडित्यपूर्ण शैली, तर्कपूर्ण शैली, खंडन-मंडन की शैली, बोलचाल की शैली।

         यह आवश्यक नहीं कि लेखक किसी रचना में एक ही प्रकार की शैली अपनाए। एक साथ कई तरह की शैलियों का प्रयोग भी किया जा सकता है या एक ही कृति में स्थान-स्थान पर अलग- अलग शैलियों भी प्रयुक्त हो सकती हैं। उदाहरण के लिए रीढ़ की हड्डी एकांकीमें जगदीश चंद्र माथुर ने प्रतीकात्मक, विवरणात्मक और व्यंग्यात्मक तीनों शैलियों का एक साथ प्रयोग किया है। इसी तरह जयशंकर प्रसाद के चंद्रगुप्तनाटक में तर्क-वितर्क पूर्ण शैली, व्यंग्यपूर्ण शैली, विश्लेषणात्मक शैली और भावनात्मक शैली साथ-साथ चलती रही हैं।

     

    (ग) संवाद (Dialogue):

         संवाद अथवा कथोपकथन को नाटक का प्राण कहा जाता है। उसके बिना नाटक हो ही नहीं सकता। हमारे जीवन में वाणी का जो महत्त्व है वही नाटक में संवादों का है।

          अन्य साहित्यिक विधाओं में लेखक अपनी ओर से भी कुछ कहता है किंतु नाटक का लेखक सब कुछ पात्रों के माध्यम से ही कहलाता है। पात्रों का व्यवहार और वाणी ही लेखक के कथ्य को दर्शक तक पहुँचाती है।

         पात्रों के चरित्र के उद्घाटन में संवादों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी पात्र के वचनों से उसके अपने बारे में परिचय मिलता है। साथ ही जो कुछ वह अन्य पात्रों के बारे में कहता है, उससे अन्य पात्रों के बारे में जानकारी मिलती है। यह जानकारी सदैव ही सीधी और स्पष्ट नहीं होती। लेखक सदैव भाषा की अभिधा शक्ति से ही काम नहीं लेता वह पात्र से व्यंजनात्मक और लाक्षणिक ढंग से भी बात कहलाता है।

     

    ध्रुवस्वामिनी का रामगुप्त से निम्नलिखित संवाद देखिएः

     

    इस प्रथम संभाषण के लिए मैं कृतज्ञ हुई महाराज! किंतु मैं भी यह जानना चाहती हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्त्री-संप्रदान से ही बढ़ा है?

     

    ध्रुवस्वामिनी के ये वाक्य रामगुप्त के चरित्र की कई विशेषताओं को प्रकट करते हैं।

         संवाद को नाटक की कसौटी माना जाता है क्योंकि कथ्य की संप्रेषणीयता में संवाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संवाद इतने लंबे नहीं होने चाहिए कि भाषा के मौखिक रूप यानी बोलने की दृष्टि से अस्वाभाविक हो जाएँ और दर्शक ऊबने लगे। न ही विचार इतने बोझिल होने चाहिए कि अस्पष्ट हो जाएँ उनमें बोलचाल की सहजता अपेक्षित है।

         इसका यह अर्थ नहीं कि नाटक के संवाद केवल रोजमर्रा के साधारण वार्तालाप की तरह ही हों। गौर करने की बात यह है कि दैनिक जीवन में भिन्न-भिन्न स्थितियों और स्तरों पर हमारी बातचीत का स्वरूप और शैली भिन्न-भिन्न होते हैं। परिवार, विद्यालय, कार्यालय, सार्वजनिक स्थल, मित्र मंडली, विचार-गोष्ठी आदि जैसे विभिन्न स्थलों पर हमारी भाषा और वार्तालाप की शैली अलग-अलग होती है।

          इसी तरह अध्यापक, डाक्टर, राजनीतिक नेता, संगीतज्ञ, साहित्यकार, न्यायाधीश, दार्शनिक विचारक, मजदूर, किसान, व्यापारी आदि विभिन्न सामाजिक हैसियतों के लोगों की बातचीत में अपने-अपने ढंग की विशिष्टता होती है। यदि नाटककार जीवन के इस वैविध्य को भली-भाँति देखता और अनुभव करता है तो उसके नाटकों में संवाद जीवन स्थितियों के अनुकूल और यथार्थ होंगे।

     

         संवादों का प्रस्तुति पक्ष भी नाटक में बड़ी अहम भूमिका रखता है। लेखक को चुनना होता है कि समग्र कथ्य का कौन सा अंश दृश्य और मौखिक रूप में सर्वाधिक संप्रेषणीय और प्रभावपूर्ण हो सकेगा। संवादों में स्वाभाविकता के साथ-साथ, वाक्चातुर्य (यानी बातचीत की कुशलता) अपेक्षित है। रंगमंच पर नाटक की सफलता या असफलता का आधार काफी हद तक उसके संवाद होते हैं।

    संवादों के प्रकार

         प्राचीन भारतीय नाटकों में तीन प्रकार के संवादों की चर्चा की गई:

    (1) सर्व श्राव्य (2) नियत श्राव्य (3) अश्राव्य।

          सर्व श्राव्य मंच पर उपस्थित सभी पात्रों के सुनने के लिए होता है; नियत श्राव्य कुछ पात्रों के सुनने के लिए और अश्राव्य मंच पर खड़े किसी अन्य पात्र के सुनने के लिए न होकर केवल दर्शकों के सुनने के लिए होता है। इसे स्वगत कथनभी कहा जाता है। इसका प्रचलन प्राचीन भारतीय नाटक और पश्चिमी नाटक दोनों में ही खूब रहा है। आजकल भी स्वगत भाषण शैली प्रचलित है। हालाँकि बहुत से लोग इसे मनोविज्ञान की दृष्टि से ज्यादा प्रभावपूर्ण नहीं मानते किंतु अच्छे अभिनेता इसे काफी प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर देते हैं।

     

    5. अभिनेयता और मंचीयता (Acting and Stagecraft) 

         नाटक दृश्य विधा है इसलिए मंचीयता या रंगमंच पर सफलतापूर्वक प्रस्तुत होने की क्षमता नाटक का अनिवार्य अंग है। अन्य साहित्यिक विधाओं की रचना लिख दिए जाने पर पूर्ण हो जाती है किंतु नाटक रंगमंच पर प्रस्तुत होकर ही पूर्ण होता है।

    इस तरह नाटक और रंगमंच में घनिष्ठ संबंध होता है। जो कृति रंगमंच पर सफलतापूर्वक प्रस्तुत नहीं की जा सकती अथवा जो दृश्य रूप में प्रभावपूर्ण नहीं है उसे नाटक नहीं कहा जा सकता भले ही वह संवादों के रूप में क्यों न लिखी गई हो। इसलिए नाटक में रंगमंचीय संभावनाएँ होनी चाहिए।  

         नाट्य कृति ऐसी होनी चाहिए कि दृश्य रूप में प्रस्तुत और प्रभावी हो सके। उसके पात्रों की योजना इस प्रकार हो कि अभिनेता उनका भली-भाँति अभिनय कर सके। अभिनय चार तरह का होता है:

    1) आंगिक - शारीरिक चेष्टाओं द्वारा

    2) वाचिक - वाणी द्वारा यानी संवाद बोलकर

    3) सात्विक - विविध भावों की हाव-भाव द्वारा अभिव्यक्ति से

    4) आहार्य - वेशभूषा, श्रृंगार और साज-सज्जा द्वारा

         नाटक की स्थितियाँ और संवाद ऐसे होने चाहिए कि अभिनेता उन्हें सहज ही आत्मसात् कर सकें और स्वाभाविक ढंग से प्रस्तुत कर सकें।

          संवाद बोल देना ही अभिनय की दृष्टि से पर्याप्त नहीं होता। उनके अनुकूल शारीरिक मानसिक चेष्टाएँ और भावों का अभिनय अपेक्षित होता है। इसके लिए लेखक द्वारा दिए गए रंग-निर्देश सहायक होते हैं।

          रंग-निर्देश ऐसे हों कि अभिनय को अधिक सजीव बनाने में निर्देशक तथा रंग-कर्मियों के सहायक हो सकें। दृश्य परिवर्तन इस तरह न हो कि मंच पर साज-सज्जा को बार-बार बदलने की जरूरत पड़े। विभिन्न सुदूर स्थलों को एक के बाद एक करके मंच पर प्रस्तुत करने से गड़बड़ी पैदा हो सकती है।

          दृश्य संख्या भी बहुत अधिक न हो। अंक विभाजन और दृश्य विभाजन समुचित हो। आजकल बहुत से नाटककार बार-बार दृश्य परिवर्तन उपयुक्त नहीं समझते और केवल अंक परिवर्तन ही प्रस्तुत करते हैं।

          संकलन त्रय - यानी स्थान, काल और कार्य की एकता की योजना भी मंचन की सुविधा की दृष्टि से ही अपेक्षित मानी गई है। यद्यपि नाटककारों ने इस बंधन को सदैव स्वीकार नहीं किया। इसके बिना भी प्रभावपूर्ण और कालजयी नाटक लिखे गए हैं। पश्चिम की इस संकल्पना को स्वयं शेक्सपियर ने ही नहीं माना।

     

    6. प्रतिपाद्य अथवा उद्देश्य (Objective or Purpose)

         किसी भी रचना के पीछे रचनाकार की रचना-दृष्टि निहित होती है। रचना जिस उद्देश्य अथवा उद्देश्यों को लेकर की जाती है अथवा रचनाकार उसके माध्यम से जो कुछ कहना चाहता है वही उस रचना का प्रतिपाद्य होता है।

          प्रतिपाद्य के आधार पर ही कृति का महत्त्व अथवा उसकी मूल्यवत्ता निर्धारित होती है। उसमें निहित जीवनानुभव, मानवीय मूल्य और संवेदना ही उसकी प्रासंगिकता निर्धारित करते हैं।

         संस्कृत नाटक में रस को इसीलिए वस्तु और नेता से अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। रस की प्रक्रिया में रचनाकार द्वारा अनुभव किए गए सत्य को नाट्य रचना द्वारा पाठक या दर्शक तक संप्रेषित किया जाता है। लेखक की अनुभूति से पाठक की अनुभूति के तदाकार होने की इस प्रक्रिया को ही रसानुभूति कहा जाता है।

         पश्चिम के नाट्य सिद्धांतों में करुणा और त्रास के माध्यम से विरेचन या भाव-परिष्कार करना त्रासदी का उद्देश्य माना गया था।

          ये दोनों दृष्टियाँ वस्तुतः नाटक के उद्देश्य को केंद्र में रखकर चलती है।

         आधुनिक नाटककारों ने सिद्धांतों के जटिल बंधन को अस्वीकार कर दिया है किंतु किसी नाटक में जो अनुभूति अथवा जीवन सत्य प्रतिपादित किया गया है, वह समाज के लिए किस दृष्टि से प्रासंगिक और उपयोगी है? इस प्रश्न का उत्तर ही उस नाटक के महत्त्व को निर्धारित करता है।

         उसमें प्रस्तुत भाव बोध, मनःस्थितियाँ, परिस्थितियाँ और वास्तविकताएँ जीवन के किन्हीं महत्त्वपूर्ण प्रश्नों या समस्याओं को जिस हद तक उजागर करती हैं, उन पर सोचने के लिए मजबूर करती हैं या मानव मूल्यों को उद्घाटित और स्थापित करती हैं उस हद तक ही वह नाटक समाज के लिए सार्थक और प्रासंगिक होगा।

         नाटक के विभिन्न पात्र अपनी-अपनी स्थितियों में जो कुछ कहते और करते हैं उसके भीतर निहित आशय को पकड़ने पर ही इस लेखकीय दृष्टि का पता लगाया जा सकता है।

          कभी-कभी तो लेखक स्वयं समाधान प्रस्तुत करके अपने उद्देश्य को सीधे स्पष्ट कर देता है किंतु कभी-कभी वह केवल समस्या को उभार कर छोड़ देता है। दर्शक के मन में उस समस्या के प्रति बेचैनी या आकुलता मात्र उत्पन्न कर देता है और दर्शक से अपेक्षा करता है कि जीवन में उठने वाले प्रश्नों या समस्याओं का समाधान वह स्वयं ढूँढे। रीढ़ की हड्डीएकांकी में जगदीशचंद्र माथुर ने ऐसा ही किया है। मराठी के प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर के नाटक भी इसी प्रकार के हैं।

         ऐतिहासिक नाटकों में प्रतिपाद्य और भी अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इतिहास की घटना की पुनरावृत्ति मात्र लेखक का उद्देश्य नहीं होता। उसके माध्यम से लेखक वर्तमान के किसी प्रसंग, समस्या या परिस्थिति को उजागर करता है।

         उदाहरण के लिए चंद्रगुप्तनाटक में जयशंकर प्रसाद ने राष्ट्रोद्धार के प्रश्न को उठाया है। यूनानी आक्रमण से देश की रक्षा और नंद के अत्याचार पूर्ण शासन में शोषित जनता के उद्धार के प्रश्न ब्रिटिश शासन और औपनिवेशिक शोषण से भारतीय जनता की मुक्ति की समस्या के संदर्भ में पर्याप्त प्रासंगिक और समसामयिक हैं। अत इतिहास की घटनाओं को मूल्यवत्ता उसके वर्तमान संदर्भों के कारण है।

         किसी नाटक में प्रतिपाद्य को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए नाटक को ध्यान से पढ़ना या मंच पर उसकी प्रस्तुति देखना आवश्यक है।

     

    ******

     

    x

    कोई टिप्पणी नहीं

    Please do not enter any spam link in the comment box.

    Blogger द्वारा संचालित.
    LazyLoad.txt Displaying LazyLoad.txt.