छायावाद (1918 ई. से 1936 ई.) | Chhayavad
हिंदी साहित्य में ‘छायावाद’ शब्द का प्रथम लिखित प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया।
सन् 1920
में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘श्रीशारदा’ में ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से चार चरणों में लेख लिखकर छायावाद की आरंभिक
विवेचना की ।
मुकुटधर
पाण्डेय ने अपने लेखों में छायावाद की पाँच विशेषताओं का उल्लेख किया, जो इस प्रकार हैं : 1. वैयक्तिकता, 2.
स्वातंत्र्य चेतना, 3. रहस्यवादिता, 4.
शैलीगत वैशिष्ट्य, 5. अस्पष्टता
सरस्वती
पत्रिका, जुलाई 1920 ई. अंक में प्रकाशित मुकुटधर
पाण्डेय की कविता ‘कुररी के प्रति’ छायावाद की प्रथम कविता मानी जाती है ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मुकुटधर
पाण्डेय को ‘छायावाद का प्रवर्तक’ स्वीकार किया है ।
मुकुटधर
पाण्डेय ने ‘आँसू’, ‘उद्गार’, ‘प्रेमबंधन’, ‘पूजाफूल’, ‘कानन कुसुम’ आदि रचनाएँ लिखी हैं।
हिंदी
साहित्य में छायावाद का विकास
हिंदी साहित्य में छायावाद का विकास
द्विवेदीयुगीन कविता के उपरान्त हुआ। मोटे तौर पर छायावादी काव्य की समय सीमा 1918 ई. से 1936 ई. तक मानी जा सकती है।
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल ने भी छायावाद का प्रारम्भ 1918 ई. से माना है, क्योंकि छायावाद के प्रमुख कवियों पन्त, प्रसाद,
निराला ने अपनी रचनाएं लगभग इसी वर्ष के आस-पास लिखनी प्रारम्भ की
थीं।
1918 में प्रसाद का ‘झरना’ प्रकाशित हो चुका था तथा निराला की प्रसिद्ध
कविता ‘जुही की कली’ 1916 ई. में
प्रकाशित हुई थी । पन्त के ‘पल्लव’ की
कुछ कविताएं भी 1918 में प्रकाशित हो चुकी थीं।
प्रसाद की ‘कामायनी’ 1935 ई. में प्रकाशित हुई तथा प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 1936 ई. में हुई। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर छायावाद की
अन्तिम सीमा 1936 ई. मानना समीचीन है।
छायावादी काव्य का जन्म द्विवेदीयुगीन काव्य की
प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ, क्योंकि द्विवेदीयुगीन कविता विषयनिष्ठ, वर्णन प्रधान और स्थूल थी, जबकि छायावादी कविता व्यक्तिनिष्ठ,
कल्पनाप्रधान एवं सूक्ष्म है।
प्रारम्भ में ‘छायावाद’ का
प्रयोग व्यंग्य रूप में उन कविताओं के लिए किया गया जो ‘अस्पष्ट’
थीं, जिनकी ‘छाया’ (अर्थ) कहीं और पड़ती थी, किन्तु कालान्तर में यह नाम
उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया जिनमें मानव और प्रकृति के सूक्ष्म सौन्दर्य में
आध्यात्मिक छाया का भान होता था और वेदना की रहस्यमयी अनुभूति की लाक्षणिक एवं
प्रतीकात्मक शैली में अभिव्यंजना की जाती थी।
छायावाद
की प्रमुख परिभाषाएं
1.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - “छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए
एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता है, अर्थात् जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त
चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है.।...... छायावाद शब्द
का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है।”
2.
जयशंकर प्रसाद - “जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी
अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे ‘छायावाद’ के
नाम से अभिहित किया गया। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार-वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति
छायावाद की विशेषताएं हैं।”
3.
डॉ. रामकुमार वर्मा - “परमात्मा की छाया आत्मा में, आत्मा की छाया परमात्मा में
पड़ने लगती है, तभी छायावाद की सृष्टि होती है।”
4.
डॉ. नगेन्द्र – “छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह
है। छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव पद्धति है और जीवन के प्रति एक विशेष भावात्मक
दृष्टिकोण है।”
5.
महादेवी वर्मा — “छायावाद तत्वतः प्रकृति के बीच जीवन का उद्गीत
है।.......उसका मूल दर्शन सर्वात्मवाद है।”
(सर्वात्मवाद = सर्वेश्वरवाद, उद्गीत= जिसका उद्गम हुआ है)
6.
डॉ. रामविलास शर्मा - “छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह
नहीं रहा है, वरन् थोथी नैतिकता, रूढ़िवाद और सामन्ती
साम्राज्यवादी बन्धनों के प्रति विद्रोह रहा है। यह विद्रोह मध्य वर्ग के
तत्वावधान में हुआ था इसलिए उसके साथ मध्यवर्गीय असंगति, पराजय
और पलायन की भावना भी जुड़ी हुई है।”
7.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी — “छायावाद के मूल में पाश्चात्य रहस्यवादी
भावना अवश्य थी। इस श्रेणी की मूल प्रेरणा अंग्रेजी की रोमांटिक भाव धारा की कविता
से प्राप्त हुई थी और इसमें सन्देह नहीं कि उक्त भावधारा की पृष्ठभूमि में ईसाई
सन्तों की रहस्यवादी साधना अवश्य थी।”
8.
नंददुलारे वाजपेयी : मानव अथवा
प्रकृति के सूक्ष्म, किन्तु व्यक्त सौन्दर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे
विचार से छायावाद की सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है ।
9.
रामस्वरूप चतुर्वेदी : वह (छायावाद) मूलत: शक्ति काव्य है, पुनर्जागरण चेतना का व्यापक और
सूक्ष्म रूप है और अपनी अर्थ-प्रक्रिया में मानव व्यक्तित्व को गहरे स्तरों पर
समृद्ध करता है ।
10.
डॉ.नामवर सिंह : छायावाद उस
राष्ट्रीय जागरण की अभिव्यक्ति है, जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से
मुक्ति चाहता है और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।
11.
डॉ.नामवर सिंह : छायावाद व्यक्तित्व की कविता है जिसका आरंभ
व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करने और करवाने से हुआ ।
उक्त
परिभाषाओं के आलोक में छायावादी काव्य के निम्न लक्षण निरूपित किए जा सकते हैं :
1. छायावादी काव्य
में रहस्यवादी प्रवृत्ति रहती है।
2. छायावादी कविता प्रेम, सौन्दर्य एवं
प्रकृति का काव्य है।
3. छायावाद में स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता रहती है।
4. छायावाद के शैली-
शिल्प एवं अभिव्यंजना पद्धति में नवीनता है।
5. छायावाद में स्वानुभूति की प्रधानता है।
उक्त
लक्षणों के आलोक में छायावाद की एक सर्वमान्य परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है :
“प्रेम, प्रकृति और मानव सौन्दर्य की
स्वानुभूतिमयी रहस्यपरक सूक्ष्म अभिव्यंजना लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक शैली में जिस
काव्य में होती है, उसे छायावाद कहा जाता है।”
छाया
और छायावाद से तात्पर्य
छायावाद का ‘छाया’ शब्द
अस्पष्टता के अर्थ में प्रयोग में लाया गया है। इस अस्पष्टता का संबंध अर्थ की अस्पष्टता से है।
इसके दो कारण हैं:
(1) छायावादी कविता की
रहस्यात्मकता और (2) छायावादी कवियों की प्रतीकात्मक शैली या
लाक्षणिकता।
आगे चलकर आचार्य शुक्ल ने यह स्वीकार किया कि
छायावाद केवल रहस्यवाद तक सीमित नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने छायावाद की
अपनी पूर्व की परिभाषा को संशोधित करते हुए कहा कि लाक्षणिक और चित्रात्मक भाषा
में जो भी अभिव्यक्ति की जाती है, वह छायावाद के अंतर्गत है। लेकिन, छायावाद
में ‘छाया’ शब्द का प्रयोग महज
अस्पष्टता तक सीमित नहीं है। कहीं पर छाया शब्द की व्याख्या प्रभाव के
परिप्रेक्ष्य में की गई है, तो कहीं पर अनुकरण के
परिप्रेक्ष्य में।
इस संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का इशारा
ईसाई धर्म के ‘फैंटसमेटा’ की ओर है। ईसाई धर्म का यह प्रभाव बंगाल
होते हुए हिंदी साहित्य पर पड़ा या फिर यह
कहें कि बंगला साहित्य पर पड़ने वाले प्रभाव का अनुकरण हिंदी के कवियों के द्वारा
किया गया।
छाया शब्द के अर्थ की व्याख्या इससे इतर सूक्ष्म
और वायवीय (वायु संबंधी) के अर्थ में भी की गई है। निश्चय ही संकेत छायावादी कविता
की सूक्ष्मता, अनुभूतिप्रबलता और कल्पनाशीलता की ओर है।
इन तमाम
संदर्भों में कहीं-न-कहीं ‘छाया’ शब्द का संदर्भ अस्पष्टता से
जाकर जुड़ता है। छायावादी
कवि जयशंकर प्रसाद मोती के भीतर छाया जैसी तरलता का हवाला देते हुए कांति या चमक के रूप में
नए अर्थ की ओर इशारा करते हैं। वे कहते हैं- “छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति एवं
अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है, ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्यमय प्रतीक विधान और उपचार वक्रता
के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं। अपने भीतर से मोती के
पानी की तरह अंतःस्पर्श करके भाव समर्पण करनेवाली अभिव्यक्ति की छाया कांतिमयी
होती है।”
छायावाद
की समय सीमा
आचार्य शुक्ल छायावाद की शुरूआत 1918 ई० से मानते हैं और इसका
विस्तार 1936 ई० तक लेकिन, छायावाद का
आरंभ कब से होता है? इसको लेकर विवाद है।
नामवर
सिंह 1920 से छायावाद की शुरूआत मानते हैं, जब मुकुटधर पाण्डेय
के द्वारा पहली बार ‘छायावाद’ संज्ञा
का इस्तेमाल किया गया और इस पर व्यापक चर्चा शुरू हुई।
डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी 1918 में प्रकाशित प्रसाद की रचना
‘झरना’ से छायावाद की शुरूआत मानते
हैं। वे प्रसाद को छायावाद का पुरस्कर्ता कवि मानते हुए ‘झरना’
को नए ढंग की कविताओं का पहला संकलन मानते हैं।
कुछ
लोगों ने 1916 में प्रकाशित ‘जूही की कली’ को
आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में एक
महत्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु के रूप में स्वीकार किया है। अप्रस्तुत विधान, चित्रात्मक भाषा, लाक्षणिकता और छंदों के बंधन से
मुक्ति इन तमाम परिप्रेक्ष्यों में ‘जूही की कली’ ऐतिहासिक महत्त्व की कविता साबित होती है। लेकिन, इसमें
मौजूद स्थूलता और मांसलता कथ्य और संवेदना के धरातल पर इसे रीतिकाल के करीब ले
जाती है। शायद यही कारण है कि छायावाद की शुरूआत 1916 की
बजाय 1918 से मानी जाती है।
1920 की तुलना में 1918 का वर्ष इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इस वर्ष प्रसाद की ‘झरना’ के अतिरिक्त पंत की ‘वीणा’
और अगले वर्ष पंत की ही ‘ग्रंथि’ का प्रकाशन होता है।
ऐसी
स्थिति में यदि 1920 से छायावाद की शुरूआत मानी जाए तो हमें ‘झरना’ के साथ-साथ ‘वीणा’
और ‘ग्रंथि ’ को भी
छायावाद के दायरे से बाहर रखना होगा।
शायद
यही कारण है कि ‘छायावाद पुर्नमूल्यांकन’ में पंत ‘झरना’ को छायावाद की पहली रचना माने जाने का विरोध
करते हुए भी भावनात्मक धरातल पर प्रसाद के प्रति आदर प्रदर्शित करते हुए उन्हें
छायावाद का प्रवर्तक माना है।
इसीलिए छायावाद की शुरूआत को 1918 से मानते हुए हमें पंत के इस
निष्कर्ष को ध्यान में रखना चाहिए- “मेरे विचार से छायावाद की प्रेरणा छायावाद के
प्रमुख कवियों को युग की चेतना से स्वतंत्र रूप से मिली है। ऐसा नहीं हुआ कि किसी
एक कवि ने पहले उस धारा का प्रवर्तन किया हो और दूसरों ने उसका अनुगमन कर उसके
विकास में सहायता दी हो।”
जहाँ तक छायावाद की अंतिम काल सीमा का प्रश्न है, तो निर्विवाद रूप से यह 1936
का वर्ष है। इसी वर्ष पंत के द्वारा ‘युगांत’
की रचना की जाती है और अगले वर्ष ‘युगवाणी’
का प्रकाशन होता है। ऐसा माना जाता है कि ‘युगांत’
के जरिए पंत जी ने छायावाद के अंत की घोषणा की है, जबकि युगवाणी के जरिए वे प्रगतिशील संवेदना को युग की वाणी के रूप में
प्रस्तुत करते हैं।
1936 का वर्ष इस मायने में भी
महत्वपूर्ण है कि इसी वर्ष ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना
होती है। इसी से प्रगतिवादी काव्यांदोलन की शुरुआत मानी जाती है।
स्पष्ट है कि 1918 से 1936 तक छायावादी काव्यांदोलन का दौर रहा है। इस दौर में प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी मुख्य रूप से ये चार रचनाकार
सक्रिय रहे हैं।
इसका मतलब यह नहीं कि इस दौर में अन्य रचनाकारों
की सक्रियता नहीं थी। सक्रियता तो थी, लेकिन उपरोक्त चारों रचनाकारों
की सक्रियता ने उन्हें पृष्ठभूमि में धकेल दिया। आगे चलकर उत्तर छायावादी
काव्यांदोलन से जुड़कर इनमें से कुछ कवियों की विशिष्ट साहित्यिक पहचान बनती है।
ऐसे कवियों में सियारामशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी,
सुभद्रा कुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि को रखा जा सकता है।
छायावाद
का नामकरण
इस कालखंड के नामकरण को लेकर भी विवाद की स्थिति
उत्पन्न होती है, यद्यपि यह विवाद आदिकाल या रीतिकाल की तरह प्रभावी नहीं बन
पाता, लेकिन कमोबेश अधिकांश आलोचकों ने यह स्वीकार किया है
कि छायावाद संज्ञा इस दौर की साहित्यिक प्रवृत्तियों को समग्रता में नहीं समेट
पाती।
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘छायावाद’ संज्ञा
पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा कि “छायावाद शब्द केवल चल पड़ने के जोर से ही
स्वीकारणीय हो गया नहीं तो इस श्रेणी के कविता की प्रकृति को प्रकट करने में यह
एकदम असमर्थ है।” वे इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं- “बहुत दिनों तक इस काव्य का
उपहास किया गया और बाद में भी इसे या तो चित्रभाषा शैली या प्रतीक पद्धति के रूप
में माना गया या फिर रहस्यवाद के अर्थ में। छायावादी कविता बाह्य इंद्रिय बोध और
चेतन मन की सीमाओं को पार कर अचेतन के रहस्यलोक में पहुँचती है और जाने-अनजाने
उसका मर्मोद्घाटन करती है।”
आगे चलकर बच्चन सिंह ने छायावाद नामकरण की सीमाओं का संकेत देते हुए
लिखा- “छायावाद शब्द न तो अपने आप अपेक्षित अर्थ दे पाता है और न अन्य भारतीय
साहित्य की धाराओं से जुड़ता है।” बच्चन सिंह का कहना है कि यह संज्ञा केवल इस दौर
के काव्य के वैशिष्ट्य का संकेत देती है, न कि इस दौर के समग्र हिंदी साहित्य
के वैशिष्ट्य का। उदाहरण के रूप में
प्रसाद के साहित्य को देखा जा सकता है। इनकी कविताओं को छायावादी कविता की संज्ञा
दी जाती है, जबकि इनके नाटकों और कहानी को स्वच्छंदतावादी
साहित्य की संज्ञा दी जाती है। यही कारण है कि बच्चन सिंह इस काल खंड के लिए ‘छायावाद’ की जगह पर ‘स्वच्छंदतावाद’ संज्ञा देते
हैं और कहते हैं- “यह एक ओर भारतीय साहित्य से भी जुड़ जाता है तो दूसरी ओर
अंतर्राष्ट्रीय काव्यधारा रोमांटिसिज्म से भी।”
इस संज्ञा के अंतर्गत छायावादी काव्य की वे
प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ तो संकेतित होती हैं जिनका संबंध स्वच्छंदतावाद से
जुड़ता है। लेकिन, वे प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ अलक्षित रह जाती हैं जिसका
संबंध स्वच्छंदतावाद से नहीं जुड़ता है। विशेष रूप से छायावादी रहस्यात्मकता का
इससे आभास नहीं मिल पाता जो उसी प्रकार छायावाद की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है जिस
प्रकार स्वच्छंदतावाद।
स्पष्ट है कि छायावाद एक व्यापक अवधारणा है
जिसके अंतर्गत स्वच्छंदतावाद और रहस्यवाद दोनों समाहित हो जाते हैं। इसलिए छायावाद
संज्ञा का इस्तेमाल इस कालखंड के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
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