‘अंधेर नगरी’ का नाट्यशिल्प | Andher Nagari Ka Natya Shilp

 अंधेर नगरीका नाट्यशिल्प | Andher Nagari Ka Natya Shilp

‘अंधेर नगरी’ का नाट्यशिल्प | Andher Nagari Ka Natya Shilp


         नाट्य शिल्प से तात्पर्य है किसी नाटक की कथावस्तु, पात्र एवं चरित्र चित्रण, संवाद, भाषाशैली, गीत या संगीत, बिम्ब एवं प्रतीक योजना तथा शीर्षक का सम्मिलित प्रभाव।
  

         अंधेर नगरीभारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित एक प्रहसन है । यह सन् 1881 ई. में किसी जमींदार को लक्षित करके नेशनल-थिएटर के लिए एक ही बैठक में लिखा गया। एक ही रात में भारतेन्दु ने एक सामान्य लोकोक्ति अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टेक सेर खाजा को इतना व्यंग्यात्मक, सार्वलौकिक और सृजनात्मक अर्थ दे दिया। 

       ‘अंधेर नगरी’ का नाट्यशिल्प अत्यंत लचीला, सरल, आकर्षक और गत्यात्मक है। भारतेन्दु  ने इसमें किसी एक प्रकार के परम्परागत अथवा आधुनिक शिल्प का प्रयोग नहीं किया है बल्कि नाटक को रूढ़ियों से, एक प्रचलित ढांचे से मुक्त किया है। यह भारतेन्दु  की निरंतर नवीन ग्रहण वृत्ति और रचना वृत्ति को स्पष्ट करता है।

     ‘अंधेर नगरी’ की पूरी कथावस्तु छह अंकों में विभाजित है और इन अंकों में कोई दृश्य विधान (रंगमंचीय प्रस्तुति के बिना भी इसे पढ़कर आनंद उठा सकते हैं) नहीं है। इस नाटक में भारतेन्दु  की विशेषता उन अंकों या दृश्यों की कल्पना, उनके संयोजन और उनकी नाटकीयता में है। आप जानते हैं कि प्रायः श्रेष्ठ नाटककार ऐसे नाटकीय व्यंग्य को लेता है। जिस पर पूरे नाटक का ढांचा खड़ा होता है। ‘अंधेर नगरी’ में भी गहरी व्यंग्यमूलक नाटकीय स्थिति इस प्रश्न से जुड़ती है कि दीवार किसके कारण गिरी? क्या वह अपराध सिद्ध हुआ? क्या न्याय मिला? क्या अपराधी बस खोजा जाता रहा?


    नाटकीय स्थिति की विशिष्टता और व्यंग्यात्मकता नाटक को प्रारम्भ से अंत तक चुस्त और लयात्मक सौंदर्य से युक्त बनाए रखती है। इसका लीचला शिल्प इसे यथार्थपरक भी बनाता है और शैलीबद्ध भी । हमेशा नए आस्वाद की संभावनाओं का यह सदाबहार नाटक कहा जा सकता है।
 
    ‘अंधेर नगरी’ के कथानक की बुनावट में खुलापन और ताज़गी है। बाज़ार दृश्य और दरबार दृश्य इसके अमूल्य नाटकीय दृश्य (अंक) हैं। सत्ता की अंध-व्यवस्था, विवेकहीनता, मूल्यहीनता का परिचय इन दो दृश्यों से मिलता है।

     बाज़ार का दृश्य पूरे देश के स्तर पर सस्तेपन, विकृति, आडम्बर अमानवीयता, शोषण और संवेदनहीनता को व्यक्त करता है। चना जोर गरम बेचने वाले घासीराम के शब्दों में चना हाकिम सब जो खाते सब पर दूना टिकस लगाते।कुंजड़िन सब्जी बेचते-बेचते अंत में जब यह कह देती है कि ले हिंदुस्तान का मेवा फूट और बैरतो सारा सब्जी बाज़ार व्यंग्यात्मक अर्थ की व्यापकता में बदल जाता है। पाचक वाले की पंक्तियों, महाजन, एडीटर, बनिये, नाटक वाले, पुलिस सब पर प्रहार करती हैं। जो केवल ब्रिटिश शासक तक ही सीमित नहीं है और इन सबके बीच में भारतेन्दु  जात वाले ब्राह्मण को टके में जात बेचते दिखा देते हैं तो सारी मूल्यहीनता और संवेदनशून्य स्थिति साकार हो जाती है।

        चौथा अंक राजनीतिक कार्रवाइयों के खोखलेपन, न्याय प्रक्रिया के अमानवीय रूप और आम आदमी की पीड़ा में उलझी स्थितियों को दिखाता है। इसमें गति, क्रियाओं, लयों की अनंत संभावनाएँ हैं। शिल्प का यह लचीलापन निर्देशकों को आकृष्ट करता रहा है।

    ‘अंधेर नगरी जैसे नाटक में पात्रों के चरित्र चित्रण की अलग से कोई आवश्यकता नहीं होती। इसमें यद्यपि कई पात्र हैं लेकिन मुख्यत: महन्त, गोबरधनदास, मंत्री और राजा ये चार विशेष पात्र हैं क्योंकि यही कथानक का आरंभ, विकास और अंत करते हैं- यही सत्ता लोलुपता, लोभवृत्ति और नीति-उपदेश के प्रतीक हो जाते हैं। इन्हीं से नाटक की कथा और उसका लक्ष्य सम्प्रेषित हो जाता है। नाटकीय व्यापारों के चयन और संयोजन की कुशलता की दृष्टि से ‘अंधेर नगरी’ विशिष्ट रचना है, पात्र उसी के अनिवार्य अंग हैं।

    अंधेर नगरी’ के नाट्य-शिल्प की विशेषता उसमें अंतर्निहित लोकधर्मी चेतना है। उसका खुलापन, गायन, नृत्य, काव्य, संवाद-उच्चारण, भाषा, अभिनय शैली, गति संचार सब लोक नाटकों जैसा है।

          चौथे अंक / दृश्य को हम पूर्णतः स्वांग (तमाशा या मज़ाक का खेल) के रूप में देख सकते हैं। संगीत, काव्य धुनों के प्रयोग में रचना के आवेग और उत्तेजना में आप इसे नौटंकी जैसा पाएंगे। नाटक के संघटन में लचीलापन इतना है कि पात्रों के प्रवेश या प्रस्थान नाटककार की तरह नहीं, निर्देशक अपनी कल्पनानुसार कर लेता है।

     जन-समूह की चेतना और रुचि संस्कार का प्रभाव नाटक में है। कार्य की जिस त्वरित गति को, बात कहने की सर्वथा मौलिक निजी शैली को भारतेन्दु  ने पकड़ा है, वही ‘अंधेर नगरी’ को कालजयी बनाता है।

    नाटक देखहु सुख पायीकी अवधारणा ‘अंधेर नगरी’ के शिल्प को न भारी भरकम बनाती है, न अतिनाटकीय और न ही अतिरंजनापूर्ण स्थितियों का घटना प्रधान नाटक।

         यह भारतेन्दु  के कथा-विन्यास, संयोजन और संरचना का ही वैशिष्ट्य है कि इतनी संक्षिप्त कथा और प्रसंगों को लेकर नाटकीय स्थितियों और दृश्यों की रचना और संयोजन वह इस प्रकार करते हैं कि एक ओर रोचकता और जिज्ञासा बनी रहती है, दूसरी ओर अपराधी की खोज और फरियादी के न्याय पर भी ध्यान केंद्रित रहता है। बाजार और राजसभा के दृश्य की संरचना बहुत कठिन है। दोनों में बिखराव एकरसता, पुनरावृत्ति दोष, मिथ्या चमक-दमक आ सकती थी पर हम देखते हैं कि ये दोनों दृश्य संकेतात्मकता, व्यंग्यात्मक टोन और प्रस्तुति पद्धति को किस तरह नई कल्पना और विस्तार देते हैं।

          भारतेन्दु  ने बेचने वालों के क्रम, उनकी शब्दावली, उनके निजी टोन और लय के अंतर और स्तर-भेद को बनाए रखा है। कबाब वाला मंच पर आकर सहसा बाज़ार दृश्य की संरचना करता है। भारतेन्दु  ने बाजार के दृश्य में संवादों के लिए लोक प्रचलित पद्यात्मक पद्धति ली है। पुरुष और स्त्री स्वरों के क्रम से इस दृश्य का आकर्षण बढ़ाया गया है। हम अनुभव कर सकते हैं कि मुगल और जात वाला ब्राह्मण अपने प्रस्तुत क्रम से कहीं पहले एकदम शुरू में ही रखे गए होते तो वह व्यंग्य न उभरता । जाति बेचने की अत्यंत रोचक संरचना सारी पृष्ठभूमि बन जाने के कारण ही सार्थक हुई है। भारतेन्दु  ने अगर हलवाई, मुगल, जातवाला को अधिक विस्तार और निरंतरता दी है तो वह उनकी नाट्य-रचना का कौशल है।

     कथा-विन्यास में चुस्ती, संगठन का तारतम्य, आंतरिक व्यंजनाएँ ‘अंधेर नगरी’ को एक पूर्ण नाटकबनाती हैं। यह स्वतः ही स्पष्ट है कि राजसभा का दृश्य एक ही स्थान का दृश्य होते हुए भी बोझिल न होकर व्यंजनात्मक इसलिए बनता जाता है क्योंकि उसमें निरंतर नए-नए पात्रों का प्रवेश-प्रस्थान, प्रश्न-उत्तर चलते रहते हैं जिससे परिवर्तनशील गत्यात्मक स्थितियाँ बनी रहती हैं।

         थार्थवादी शिल्प अथवा शास्त्रीय शिल्प के चक्कर में न पड़कर लोकनाट्य की उन्मुक्त शैली के अनुभव और प्रयोग के कारण ही यह दृश्य इतना चुस्त बन पड़ा है। हर दृश्य, हर स्थिति अपने सही अनुपात में है जिसका मुख्य कारण लोकधर्मिता है।

      ‘अंधेर नगरी’ का नाट्यशिल्प लोक नाटकों से प्रेरित माना जा सकता है। मुख्य बात यह है कि इसके नाट्य-शिल्प में भारतेन्दु  किसी विशेष पद्धति का अनुसरण नहीं करते, न मात्र प्रभाव ग्रहण करते हैं। उन्होंने अपनी मौलिक रचनाशीलता से एक लोकोक्ति को पूर्ण नाटक का संगठित शिल्प दिया है जिसके पीछे सांस्कृतिक चेतना और परम्परागत आधार है साथ ही नाटककार की युगानुरूप दृष्टि भी शिल्प का यह सौंदर्य उनकी भाषा की क्रियात्मकता और नाटक के रूप-विधान की स्वतंत्रता के कारण आ सका है। 

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